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________________ हिन्दी - जैन साहित्य-परिशीलन घटकी जटा लटकि जो रही । सो आयुर्दा जिनवर कही || तिह जर कारत भूसा दोय । दिन नह रैन लखहु तुम सोय ॥ माँखी घूँटत ताहि शरीर । सो बहु रोगादिक की पीर ॥ अनगर पस्यो कूपके बीच | सो निगोद सवतैं गति बीच ॥ याकी कछु मरजादा नाहिं । काल अनादि रहे इह माहिं ॥ ara मिन कही इहि ठौर चहुँगति महित भिन न और ॥ चहुँदिश चारहु महाभुजंग । सो गति चार कही सरवंग ॥ मधुकी बून्द विषै सुख जान । निहँ सुख काज रह्यौ हितमान | ज्योंनर त्या विषयाश्रित जीव । इह विधि संकट सहै सदीव ॥ विद्याधर तहँ सुगुरु समान । दे उपदेश सुनावत ज्ञान ॥ १७६ कविने इस रूपक द्वारा विषय- सुख और सारहीनताका सुन्दर विश्लेषण किया है। तथा मिथ्यात्व, अविरति आदिको त्यागकर सम्यक् श्रद्धालु और सम्यक ज्ञानी बनने के लिए ज़ोर दिया है। स्वप्नवत्चीसी, मिथ्यात्वचतुर्दशी आदि और भी कई रचनाएँ आध्यात्मिक रूपक काव्यके अन्तर्गत आती है । जैन रुपक काव्यकी परम्परा बहुत दिनो तक चलती रही । हिन्दी साहित्यमें जायसीके पद्मावतके पश्चात् रूपक साहित्यकी धारा सुखी-सी मालूम पड़ती है। यद्यपि नाव्यक्षेत्रमें भारतेन्दुका पाखण्ड - विडम्बन, प्रसादका कामना नाटक और कवि पन्तका ज्योत्स्ना रूपककै सुन्दर उदाहरण हैं, तो भी इस अंगके विकासकी अभी आवश्यकता है । काव्य साहित्यमे प्रसादकी 'कामायनी' स्पक काव्य है । भारतेन्दुने कलियुगके प्रभाषसे जीवनमे सतोगुणका अभाव एवं रजोगुण तमोगुणका प्राधान्य है, इसका चित्रण इस रूपकमे किया है । नाटककारने बताया है कि शान्ति और करुणा दो सखियाँ है । शान्ति अपनी प्यारी माँ श्रद्धाके वियोगमे दुःखी है । करुणा अपनी सखी शान्तिको सान्त्वना देती हुई तीथा,
SR No.010038
Book TitleHindi Jain Sahitya Parishilan Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1956
Total Pages253
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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