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________________ उन अनन्तोको क मेरा उद्धार कमला लगता है। १५८ हिन्दी-जैन-साहित्य-परिशीलन गहन-पंकसे निकलना मुझे असभव-सा लगता है। मै यह जाननेके लिए उत्सुक हूँ कि मेरा उद्धार किस प्रकार हो सकेगा। मै किस प्रकार उन अनन्तोकी पक्तिमे स्थान प्राप्त कर सकूँगा, जो अपनेको ईश्वर हो जानेका दावा करते हैं।" सुबुद्धि-"नाथ! आप अपना उद्धार स्वय करनेमे समर्थ है जो व्यक्ति अपने स्वरूपको भूल जाता है, उस व्यक्तिको पराधीन करनेमे विलम्ब नहीं होता। जब तक हम अपनी यथार्थ स्थिति नहीं समझते है, तब तक प्रायः हमारे ऊपर शासन किया जाता है। हमारे ऊपर शोषणका क्रम भी तभीतक चलता है, जबतक हम अपने अधिकार और कर्तव्योसे वचित है। भेदविज्ञान ही आपके लिए परम उपयोगी अन्न है, इसीसे आप रणक्षेत्रमें युद्ध करनेके लिए सक्षम हो सकते हैं। जैसे सिंह गधोके साथ रहते-रहते अपनेको भूल जाता है, उसी प्रकार आप भी कुबुद्धिके कुसगसे पथच्युत हो गये है तथा इधर-उधर भ्रमण कर रहे हैं । सावधान होकर अब मैदानमे आ जाइये, विजय निश्चित है।" कुबुद्धि-री दुष्टा! क्या बक रही है। मेरे सामने तेरा इतना बोलनेका साहस, तू नहीं जानती कि मै प्रसिद्ध शूरवीर मोहकी पुत्री हूँ। मुझे इस बातका अभिमान है कि अपने प्रभावसे मैंने अनेक योद्धाओको परास्त कर दिया है। अरी सौत! तू इतनी बढ-बढ कर क्यो बाते कर रही है, क्यो नही यहाँसे चली जाती ?" ___ सुबुद्धि-“वाह ! वाह !! आपने खूब कहा। मैं और यहाँसे चली जाऊँ और तुम अकेली क्रीड़ा करो। न!न !! यह कभी नहीं होनेका । मेरे रहते हुए तेरा अस्तित्व कमी सम्भव नहीं, तू दुराचारिणी है । चल हट यहाँसे ।" सुबुद्धिके इन वाक्य-वाणोने कुबुद्धिक हृदय-कुसुमको छिन्न-भिन्न कर दिया, वह क्रुद्ध हो लाल-पीली होती हुई अपने पिता मोहराजके पास गई। यद्यपि यह मोहराज प्रचण्ड बली थे, पर समय और परिस्थितिका उन्हे
SR No.010038
Book TitleHindi Jain Sahitya Parishilan Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1956
Total Pages253
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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