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________________ हिन्दी-जैन-साहिन्य-परिचालन और पोषणने प्रणीको अनेक कष्ट भोगने पड़ते हैं नया मी चिरन्दन शान्ति मी इसीके कारण विकृत हो जाती है। ___ नत्र चैतन्य आत्मा जागृत हो जाती है, तब मानव बड़ पदाणके मुखको नीरस अनुमत्र करने लगता है। मुमतान्ण पतवारके हाथों आजानेसे मन-समुद्रको पार करनेमें सरलता होती है। आत्म्गुणत्पी यन्त्र दिवाओंका परिज्ञान करता है । मुलच्यानन्पी मलह निवद्वीप मोक्षकी औरसे चलता है। यद्यपि मागमें अनेक कठिनाइयोंका साम्ना करना पड़ता है, पर स्नत्रय पाममें रहने गन्तन्यर पहुँचनेम बिलब नहीं होना है। इसमें प्रस्तुत मंसारकी अभिव्यंन्नाके लिए अप्रन्दन सदा सडोपाङ्ग निरूपण करते हुए उस पर होनेके प्रवन्नोपर प्रकाश बाला है। कथानकके अवलम्बन बिना ही मावनामाकी इतनी सुन्दर अनिन्याना कवि काव्य चम्कारकी भूमिका है। अनि कितने सीधे-साद दंग भावाने प्रकट किया है कर्म समुद्र विनाव लल, विषय कपाय तरंग। बड़वानल तृष्णा प्रबल, ममना धुनि सर्वग। मरम मवर ताने फिर, मन जहाल चहुओर। गिर पिरै बूढे तिर, उदय पवनके दोर ।। जब बेठन मालिक वर्ग, लन् विपाक नजून । द्वार समता श्रृंखला, यक घर की म दिगि पर गुण जन्मों , फेरे शरति मुस्तान । धरै साथ गिव दीप मुख, वाइवान शुमच्यान॥ इनकी मात्रा उरल, परिमार्दिट और मधुर है। उगएँ नर्थक है, कल्पनाकी उड़ान ऊँची नहीं है, कि भी मान्की बने रहना अच्छी है। कन्नि इसमें आध्यात्मिक मावनाओंा अपूर्व मिश्रण किया है।
SR No.010038
Book TitleHindi Jain Sahitya Parishilan Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1956
Total Pages253
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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