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________________ ઉપર हिन्दी-जैन साहित्य-परिशीलन ग्यारहवाँ ठग है नीद । तन्द्रा मानवको संसारके मधुर स्वप्नोंमे भले ही विचरण कराये, पर ठोस विश्वसे पृयक् कर देती है। जन्म-मरणकी समस्या और संसारकै प्रति विराम भावकी कल्पनामें यह अनेक विघ्न उपस्थित करती है। यह ठग आत्मानुभूति सौन्दर्यकी यथार्थ अभिव्यक्तिको चुरा लेता है। वारहवाँ ठग है अहकार । ससारकी दो प्रवृत्तियाँ जो जीवनको इस भितिजसे उस क्षितिजकी ओर ले जाती है, इसीके कारण उत्पन्न होती है । आत्मामे मार्दवधर्म उत्पन्न न होने देना तथा सहानुभूति और सहृदयता, जो कि नम्रता भावको उत्पन्न करनेमे साधक हैं, नही उत्पन्न होने देना इसकी विशेषता है। तेरहवाँ ठग मोह है। सारा विश्व इसके प्रभावसे दुःखी है । रलत्रयचर्मको ये सभी ठग चुराते है, उसको प्राप्त करनेमे बाधक बनते हैं। यद्यपि इस तेरह काठियाकी रचना साधारण है, काव्य-सौन्दर्य अत्यल्प है। फिर भी भावनाओं और विचारकी दृष्टिसे यह रचना श्रेष्ठ है , इसमे जीवनके सभी पक्षोंकी अनुभूतिके लिए हृदय-कपाटको खुला रखा गया है । मनोविकारोंके परिमार्जनकी ओर प्रत्येक व्यक्तिको सर्वदा ध्यान रखना चाहिये, उसपर विशेष जोर दिया है । भाषापर गुजरातीका प्रभाव है। यह सरस हृदयग्राहक रचना है। कवि बनारसीदासने इसमे ससारकी विडम्बनाओसे पृथक रहनेकी ओर संकेत करते हुए परमात्म-चिन्तन भवसि अथवा तत्त्वान्वेषणकी ओर प्रवृत्त होनेकी बात चतशी कही है। प्रायः देखा जाता है कि उच्चतर अमि व्यक्तिसे वचित मानव-जीवन ऐन्द्रिय उपयोगमे ही डूबा रहता है। भौतिक संघर्षके कारण जीवन-नौका आध्यात्मिकताकी ओर गीतशील नहीं होती है। रागवश मानव स्वभावतः विषम परिस्थितियोसे आहत रहता है और उसे आत्म-सुख-रूपिणी स्थिति नहीं मिल
SR No.010038
Book TitleHindi Jain Sahitya Parishilan Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1956
Total Pages253
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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