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________________ ८ दौलत - जैनपदसंग्रह | L , ॥ टेक ॥ मोह तिमिर सदा कालके, छाय रहे मेरे नैन । ताके नाशन हेत लियो, मैं अंजन जैन सु ऐन || अव ॥ १ ॥ मिश्रपामती भेपको लेकर, भापत हैं जो चैन । सो वे बैन असार लखे मैं ज्यों पानीके फैन ॥ अव मोहि० ॥ २ ॥ मिथ्यामती वेल जग फैली, सो दुख फलकी देन ॥ सतगुरु भक्तिक्कुठार हाथ लै, छेद लियौ अति चैन ॥ ग्रव० ॥ ३ ॥ जा विन जीव सदैव काल विधि वश सुखन लहै न । अशरन शरन अभय दौलत 'अव, भजो रैन दिन जैन ॥ ग्रव० ॥ ४ ॥ १० 1 सुन जिन चैन, श्रवन सुख पायौ ॥ टेक ॥ नस्यौ तत्त्व दुर अभिनिवेश तम, स्याद उजास कहायौ । चिर विसरयौ लौ प्रातम रैन (१) ॥ श्रवन० ॥ १ ॥ दद्यौ अनादि असंजम दवतैं, लहि व्रत सुधा सिरायौ । धीर घरी मन जीतन मन (१) ॥ श्रवन सुख० ॥ २ ॥ भरो विभाव अभाव सकल अब, सफल रूप चित लायौ । दास लौ व अविचल जैन । श्रवन सुख० ॥ ३ ॥ ११ वामा घर वजत वधाई, चलि देखि री माई ॥ टेक ॥ सुगुनरास जग आस भरन तिन, जने पार्श्व जिनशई । श्री ही धृति कीरति बुद्धि लछमी, हर्ष अंग न माई ॥ चलि० ॥ १ ॥ वरन वरन पनि चूर सची सव, पूरत
SR No.010037
Book TitleDaulat Jain Pada Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages83
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size3 MB
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