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________________ ५४ ( काया करण, कर्म करण ) । तीन विकलेन्द्रिय में करण पाव ३ ( काया करण, वचन करण, कर्म करण ) । तिर्यश्व पंचेन्द्रिय में और मनुष्य में करण पावे ४ । इन श्रदारिक के १० दण्ड़क सें शुभाशुभ करण से वैमायाए ( विमात्रा-विचित्र प्रकार से अर्थात् कभी साता कमी असावा ) वेदना वेदते हैं । जीवों स वेदना और निर्जरा के ४ भांगे होते हैं१ महावेदना महानिर्जरा, २ सहावेदना अल्पनिर्जरा, ३ अल्प वेदना महानिर्जरा, ४ अल्प वेदना अल्पनिर्जरा । पहले भांगे में पडिमाधारी साधु हैं, दूसरे भांगे में छठी सातवीं नरक के नेरीया । तीसरे मांगे में शैलेशी प्रतिपन्न ( चौदहवें गुणस्थान वाले ) अनगार हैं। चौथे भांगे में अनुत्तर विमान के देवता हैं । सेवं भंते ! सेवं भंते !! ( थोकड़ा नं० - ४७ ) श्री भगवतीजी सूत्र के छटे शतक के तीसरे उद्देशे में 'कर्मबन्ध' का थोकड़ा चलता है सो कहते हैं १ - अहो भगवान् ! क्या महाकर्मी, महा क्रियावन्त महा यावी, महावेदनावंत जीव के सब दिशाओं से कर्म पुद्गल आकर आत्मा के साथ बंधते हैं, चय उपचय होते हैं ? सदा निरन्तर बंधते हैं, चय उपचय होते हैं. उन कर्मों के मैल से "
SR No.010034
Book TitleBhagavati Sutra ke Thokdo ka Dwitiya Bhag
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhevarchand Banthiya
PublisherJain Parmarthik Sanstha Bikaner
Publication Year1957
Total Pages139
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, & Canon
File Size6 MB
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