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________________ सम्पादन कला एवं भाषा-सुधार [ ८१ - अपने हाथ मे लेते ही उन्होने अपनी सारी बुद्धि- सारी शक्ति को इस पत्रिका के लिए व्यय करना प्रारम्भ कर दिया। डॉ० लक्ष्मीनारायण दुबे ने लिखा है : "युगप्रवर्तक आचार्य महावीरप्रसाद द्विवेदी और 'सरस्वती' दोनों शरीर और एक आत्मा थे । कल्याणी गंगा को अवनि पर लाकर मम्राट् भगीरथ ने उसे भागीरथी बना दिया, उसी प्रकार द्विवेदीजी ने भी 'मरस्वती' के युगान्तरकारी एवं प्रभावोत्पादक नादौन्दर्य से हिन्दी - संसार को विमोहित कर दिया । " " लगी । 'सरस्वती' पत्रिका के अंग-अंग में उनकी प्रतिभा की झलक दिखाई पडने के प्रारम्भिक सम्पादकों ने इसकी जो रूपरेखा बनाई थी और इसे हिन्दी की अप्रतिम पत्रिका बनाने की जो प्रतिज्ञा की थी, उसका अक्षरशः एवं और भी अधिक परिष्कृत रूप से पालन द्विवेदीजी ने किया । इसके फलस्वरूप द्विवेदीजी के सम्पादन में 'सरस्वती' के एक-दो अंकों के निकलते ही हिन्दी - जगत् में इस पत्रिका को सर्वोच्च स्थान मिलने लगा । अपने सम्पादकत्व के सम्बन्ध में द्विवेदीजी की कतिपय निजी मान्यताएँ थी । अपने आत्मनिवेदन में उन्होंने सम्पादन सम्बन्धी अपने आदर्शों की जो विस्तृत विवेचना की है, उससे उनकी सम्पादन- कला के मूल बिन्दुओं तक सरलता से पहुँचा जा सकता है। उन्होंने स्वयं लिखा है : "सरस्वती के सम्पादन का भार उठाने पर मैंने अपने लिए कुछ आदर्श निश्चित किये । मैंने संकल्प किया : १. वक्त की पाबन्दी करूँगा । २. मालिकों का विश्वासपात्र बनने की चेष्टा करूँगा । ३. अपने हानि-लाभ की परवा न करके पाठकों के हानि-लाभ का सदा खयाल रखूंगा और ४. न्यायपथ से कभी न विचलित हूँगा । इनका पालन कहाँ तक मुझसे हो सका, संक्षेप में सुन लीजिए : १ सम्पादकजी बीमार हो गये, इस कारण 'स्वर्ग' दो हफ्ते बन्द रहा । मैनेजर साहब के मामा परलोक प्रस्थान कर गये, लाचार 'विश्वमोहिनी' पत्रिका देर से निकल रही है । 'प्रलंयकर' पत्रिका के विधाता का फौण्टेनपेन टूट गया । उसके मातम में १३ दिन काम बन्द रहा । इसी से पत्रिका के प्रकाशन में विलम्ब हो गया । प्रेस की मशीन नाराज हो गई। क्या किया जाता। 'त्रिलोकमित्र' का यह अंक उसी से समय पर न छप सका । इस तरह की घोषणाएँ मेरी दृष्टि में बहुत पड़ चुकी थीं। मैंने कहा- मैं इन बातों का कायल नही । प्रेस की मशीन टूट जाय, तो उसका जिम्मेदार मैं नही, पर कॉपी समय पर न पहुँचे, तो उसका जिम्मेदार मैं हूँ। मैंने अपनी इस जिम्मेदारी का निर्वाह जी-जान होम कर किया। चाहे पूरा का पूरा अंक मुझे ही १. डॉ० लक्ष्मीनारायण दुबे : सरस्वती तथा अमर शहीद श्रीगणेशशंकर विद्यार्थी, 'सरस्वती', हीरक जयन्ती - अंक, सन् १९६१ ई०, पृ० ३५ ।
SR No.010031
Book TitleAcharya Mahavir Prasad Dwivedi Vyaktitva Krutitva
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShaivya Jha
PublisherAnupam Prakashan
Publication Year1977
Total Pages277
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, Biography, & Literature
File Size26 MB
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