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________________ २० ] आचार्य महावीरप्रसाद द्विवेदी : व्यक्तित्व एवं कर्तृत्व हिन्दी में ऐसा व्यंग्य भारतेन्दु-युग में ही सम्भव था । ऐसा लगता है कि उस युग के साथ ही हिन्दी की यह सप्राण व्यंग्य - परम्परा लुप्त हो गई है । भारतेन्दु-युगीन आलोचना के स्वरूप को अच्छी तरह विश्लेषित करने के पूर्व इस परिवेश और इसमें प्रवाहित होनेवाली विवारधाराओ का सम्यक् ज्ञान अपेक्षित है । ध्यातव्य है कि युग-विशेष की वैचारिक एवं दार्शनिक प्रवृत्तियाँ तथा आर्थिक एवं राजनीतिक परिस्थितियाँ साहित्यालोचन को भी प्रभावित करती हैं। आलोचक अपने परिवेश से पूर्णतया पृथक् और आद्यन्त वस्तुनिष्ठ नहीं हो सकता । अन्य मनुष्यों की तरह भी सामयिक परिस्थितियों से प्रभावित और अपनी प्रतिक्रियाओं से परिचालित होता है । फ्रान्सीसी आलोचक टेन (TAINE) ने प्रत्येक कलाकृति को कलाकार के युग, जाति और परिवेश से प्रभावित कहा, जो सर्वथा समीचीन है । समीक्षा के क्षेत्र में पूर्ण वस्तुनिष्ठता विरल है । १ भारतेन्दु-युग की उत्कट देशभक्ति और हिन्दी-भाषाप्रेम हिन्दी - आलोचना में भी जीवन्त अभिव्यंजना पा सका है और इस आलोचना के नीतिमूलक स्वर में प्रतिध्वनि है । इस युग की आलोचना का नैतिक होना उतना ही स्वाभाविक है, जितना उस सम्पूर्ण युग का प्रगाढ देशप्रेम से ओतप्रोत होना । देश में जब 'नई रोशनी का विष' व्याप्त हो रहा हो, जब 'बीबी उरदू' नाजनीन बन रही हो और हिन्दी 'करम का फुटहा ' बन गई हो " " जब विलायत के जुलाहे देश के शोषण में अनवरत लगे हों और देशभाषा के अखबारों के एडीटर 'महापापी' घोषित हो गये हों, तब देशभाषा में लिखनेवाले आलोचक अपने पाठकों की नीति और उपदेश से भरी हुई आलोचनाएँ देंगे ही। यही कारण है कि इस युग की परिचयात्मक अलोचनाएँ भी मूलत. उन्हीं बातों का उल्लेख करती है, जिनसे पाठकों को शिक्षा मिले। परिचय का केन्द्र शिक्षा बन जाती है, उपदेश हो जाता है । अपक्व एवं रोमाण्टिक प्रतिक्रियाओं के सहज उच्छलन - मात्र से भारतेन्दु-युग की समीक्षा का निर्माण नहीं होता । श्रीराधाचरण गोस्वामी ने लिखा था : " वंगभाषा में 'भारतमाता' और 'भारते यवन' यह दो रूपक हैं । 'भारतमाता' का 'भारत-जननी' के नाम से कुछ अंश 'हरिश्चन्द्र चन्द्रिका' और 'कविवचनसुधा' में प्रकाशित हो चुका है । 'भारते यवन' का अब मैंने अनुवाद किया है । अनुवाद के सुन्दर होने की मुझे नेक भी आशा नहीं है; क्योंकि अपनी बुद्धि का मुझे भली भाँति अनुभव है, पर इसके पढ़ने से देशवासियों को लज्जा होगी, यह मैं अवश्य कह सकता हूँ...' 3 दंगभाषा में 'भारतमाता' और 'भारते यवन' का लिखा जाना युग की प्रवृत्तियों को देखते हुए,. १. हिन्दी - प्रदीप, सितम्बर, १८७९ ई०, पृ० ६ | २. उपरिवत् । ३. उपरिवत्, १ मार्च, १८७६ ई०, पृ० २ ।
SR No.010031
Book TitleAcharya Mahavir Prasad Dwivedi Vyaktitva Krutitva
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShaivya Jha
PublisherAnupam Prakashan
Publication Year1977
Total Pages277
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, Biography, & Literature
File Size26 MB
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