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________________ कविता एवं इतर साहित्य ] २१७ कविता में विधाता की अन्य भूलों का निर्देश करने के पश्चात् उन्होंने हिन्दी-पत्रिकाओं के सम्पादकों की अज्ञता की ओर भी संकेत किया है : शुद्धाशुद्ध शब्द तक का है जिनको नहीं विचार, लिखवाता है उनके कर से नये-नये अखबार । ' हिन्दी को सम्पन्न बनाने के लिए तो वे सबसे प्रार्थना करते थे : तोसों कहाँ कहु कवे ! मम और जोवो, हिन्दी दरिद्र हरि तासु कलंक धोवो |२ हिन्दी के अल्पज्ञ अधकचरे लेखकों पर द्विवेदीजी ने 'ग्रन्थकार-लक्षण' कविता से व्यंग्य किया है : शब्दशास्त्र है जिसका नाम ? इस झगड़े से जिन्हें न काम, नहीं विरामचिह्न तक रखना जिन लोगों को आता है । जोर-बटोर, तोड़-मरोड़ । इधर-उधर से लिखते हैं जो इस प्रदेश में वे ही पूरे ग्रन्थकार कहलाते हैं 13 'सरस्वती' जैसी पत्रिकाएँ उस समय जैसे आर्थिक संकट का सामना कर रही थीं, उस ओर भी संकेत उन्होने 'सरस्वती का विनय' लिखकर दिया : यद्यपि वे सदैव मनोमोहक धरती हूँ, वचनों की बहुभाँति रुचिर रचना करती हूँ । उदर हेतु मैं अन्न नहीं तिस पर पाती हूँ, हाय हाय ! आजन्म दुःख सहती आती हूँ ॥ हिन्दी साहित्य को विकसित करने के उद्देश्य को ध्यान में रखकर लिखी गई उनकी कविताएँ काव्य की दृष्टि से महत्त्वपूर्ण नही हैं। ऐसी कविताओं को समीक्षकों कोन का भोजन बनना पड़ा है । जैसे, डॉ० सुधीन्द्र ने लिखा है : " द्विवेदीजी के लिए कविता बायें हाथ का खेल हो गई थी। अपने आदेश निर्देश तक वे पद्य के ही माध्यम से दिया करते थे ।” १. श्री देवीदत्त शक्ल : (सं०) 'द्विवेदी - काव्यमाला', पृ० २९१ । २. उपरिवत्, पृ० २६२ । ३. 'सरस्वती', अगस्त, १९०१ ई०, पृ० २५५ । ४. 'सरस्वती', जनवरी १९०३ ई०, पृ० १४ । . 'सरस्वती', फरवरी, १९०५ ई०, पृ० ५३ ।
SR No.010031
Book TitleAcharya Mahavir Prasad Dwivedi Vyaktitva Krutitva
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShaivya Jha
PublisherAnupam Prakashan
Publication Year1977
Total Pages277
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, Biography, & Literature
File Size26 MB
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