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________________ गद्यशैली : निबन्ध एवं आलोचना [ १९३ बहुधा देखने में आती है ।"१ किन्तु, प्रमाणों के प्रस्तुतीकरण की प्रक्रिया में द्विवेदीजी कोरे तर्क की नीरसता का आश्रय न लेकर जिस पद्धति को अपनाते हैं, उससे निबन्ध आद्यन्त रोचक हो गया है। वे पण्डितराज जगन्नाथ का महत्त्व यह कहकर प्रतिपादित करते है कि 'रसगंगाधर' में पण्डिनराज जगन्नाथ ने, रसो और अलकारों आदि के विवेचन में अपने पूर्ववर्ती पण्डितों के सिद्धान्तों की खब ही जाँच की है और अपनी बुद्धि का निराला ही चमत्कार दिखाने की चेष्टा की है । ग्रन्थारम्भ करने के पहले ही आपने यह कसम खा ली है कि मै उदाहरणरूप में औरों के श्लोक तक ग्रहण न करूँगा, खुद अपनी ही रचनाओं के उदाहरण दूंगा। इसे आपने निभाया भी खूब । इस ग्रन्थ में जगन्नाथ राय ने अप्पयदीक्षित की बडी ही छीछालेदर की। बात-बात पर दीक्षितजी की उक्ति और सिद्धान्तों का निष्ठुरतापूर्वक खण्डन किया, उनकी दिल्लगी उड़ाई, कही-कहीं तो उनके लिए अपशब्द तक कह डाले । लो, अलंकारशास्त्री बनने का करो दावा । मैं तो मै, दूसरा कौन इस विषय में ज्ञाता हो सकता है। बात शायद यह ।'२ अप्पयदीक्षित के साथ हुए पण्डितराज के झगड़े का बड़ा ही प्रासंगिक उल्लेख करते हुए द्विवेदीजी कहते है : 'अप्पयदीक्षित की इतनी खबर लेकर भी जगन्नाथ राय को सन्तोष न हुआ। रसगंगाधर में दिखाये गये अप्पयदीक्षित के दोषों का संक्षिप्त संग्रह उन्होंने उससे अलग ही निकाला और 'चित्रमीमांसा-खण्डन' नाम देकर उसे एक और नई पुस्तक का रूप प्रदान किया। उसके आरम्भ मे आप फरमाते हैं . रसगङ्गाधरे चित्रमीमांसाया मयोदिताः। ये दोषास्तेऽत्र संक्षिप्य कथ्यन्ते विदुषां मुदे ॥3 द्विवेदी जी उसी समालोचना को 'सच्ची' कहते है, जो 'नेकनीयती से और युक्तिपूर्वक'४ की जाती है। चूंकि उनकी समालोचना सच्ची है, इसलिए उसका आदर करना ही चाहिए।५ जो समालोचना सच्ची नहीं होती और जो राग-द्वेष और ईर्ष्या की प्रेरणा से किसी को हानि पहुँचाने या उसका उपहास करने के लिए की जाती है, उसका आदर नहीं होता । ६ द्विवेदीजी की आलोचनाओं के पारायण से हम इसी निष्कर्ष पर पहुंचते हैं कि वे समीक्षक के दायित्व से पूर्णतया परिचित हैं और तटस्थ भाव से समीक्ष्य ग्रन्थ के गुण-दोषों का विवेचन करना अपना कर्त्तव्य मानते हैं। समीक्षक के रूप में वे ग्रन्थों के गुण-दोष-विवेचन करने से ही सन्तुष्ट न होकर पाठकवर्ग की १. महावीरप्रसाद द्विवेदी : 'विचार-विमर्श', सं० १९८८, पृ० ५-६ । २. उपरिवत् । ३. उपरिवत्, पृ०६। ४. उपरिवत, पृ० १०। ५. उपरिवत् । ६. उपरिवत् ।
SR No.010031
Book TitleAcharya Mahavir Prasad Dwivedi Vyaktitva Krutitva
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShaivya Jha
PublisherAnupam Prakashan
Publication Year1977
Total Pages277
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, Biography, & Literature
File Size26 MB
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