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________________ गद्यशैली : निबन्ध एवं आलोचना [ १२७ योग्यता प्राप्त करने की मुतलक जरूरत नहीं । वह उन्हें अनायास ही प्राप्त हो जाती है, जन्म के साथ ही वह उन्हें मिल जाती है । .... . और, इसी से हिन्दी के नव-नवोद्गत सम्पादकों मे ब्रह्मा ने जहाँ योग्यता, उदारता, विद्वत्ता, विवेकशीलता आदि की नि. सीम सृष्टि की है, हिन्दी के पाठको मे अयोग्यता, अनुदारता, बुद्धिहीनता और अविवेकिता आदि दुर्गुणों को भी ठूस ठूसकर भर दिया है। फल यह हुआ कि वे ज्ञान-विज्ञान की बातो से भरे हुए पत्नों की भी कदर नही करते । कोई कैसा ही अच्छा पत्र क्यों न निकाले, वह महीने ही दो महीने या अधिक-से-अधिक वर्ष ही दो वर्ष में ग्राहक या पाठक न मिलने से अस्त हो जाता है ।" " अपने युग में पत्र-पत्रिकाओं की अधोगति का प्रमुख कारण सम्पादकों की अल्पज्ञता एवं अनुभवहीनता को मानकर द्विवेदीजी ने उपर्युक्त पंक्तियों में जिस प्रच्छन्न व्यंग्य का प्रयोग किया है, वह अपने लक्ष्य की दृष्टि से पर्याप्त सार्थक एवं सटीक है | व्यंग्यात्मक शैली की अत्यन्त सरल बोलचाल का सुन्दर उदाहरण द्रष्टव्य है : "इस म्युनिसिपैलिटी के चेयरमैन (जिसे अब कुल लोग कुर्सीमैन भी कहने लगे हैं) श्रीमती 'बूचा शाह हैं । बाप-दादे की कमाई का लाखों रुपया आपके घर भरा है ! पढे-लिखे आप राम का नाम ही हैं। चेयरमैन आप सिर्फ इसलिए हुए हैं कि अपनी कारगुजारी गवर्नमेण्ट को दिखाकर आप रायबहादुर बन जाएँ, खुशामदियों से आठ चौंसठ घड़ी घिरे रहें । म्युनिसिपैलिटी का काम चाहे चले न चले, आपकी बला से । २ -साथ-ही-साथ, द्विवेदीजी ने अँगरेजी और फारसी तथा रूपकादि अलंकारों की योजना द्वारा भी व्यंग्यविधान की सर्जना की है। एक उदाहरण इस प्रकार है : "समालोचना-सरोवर के हंस हमारे समालोचक महाशय ने हमारी तुलना एक विशेष प्रकार के जलपक्षी से की है । इस पक्षी को किनारे के कीचड़ ही में सब मिल जाता है। थैंक यू, जलपक्षियों के परीक्षक और जुबाँदानी का कीचड़ उछालनेवाले वीर ! आपने कभी उस जलचर को भी देखा है, जो भूख के मारे अपने हाथ, पैर, सिर और आत्मा तक को अपने शरीर के कोटर में छिपाकर पानी में गोता लगा जाता है। व्यंग्य को द्विवेदीजी ने अपनी निर्भीकता एवं यह शैली सम्पादकीय गरिमा के अन्दर रहती हुई की लोकोक्ति को चरितार्थ करती रही । द्विवेदीजी की उदाहरण उनकी 'सरस्वती' की फाइलों में उपलब्ध स्पष्टोक्ति का वाहन बनाया था । 'साँप भी मरे और लाठी न टूटे' व्यंग्यात्मक गद्यशैली के अगणित यदि शून्य दृष्टि से देखा जाय, १. आचार्य महावीरप्रसाद द्विवेदी : 'विचार-विमर्श', पृ० ६०-७० । २. श्रीप्रेमनारायण टण्डन : 'द्विवेदी-मीमांसा', पृ० १८४ पर उद्धृत । ३. 'सरस्वती', भाग ७, संख्या २, पृ० ७७ ।
SR No.010031
Book TitleAcharya Mahavir Prasad Dwivedi Vyaktitva Krutitva
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShaivya Jha
PublisherAnupam Prakashan
Publication Year1977
Total Pages277
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, Biography, & Literature
File Size26 MB
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