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________________ आदिनाथ चरित्र प्रथम पर्व "हे महाराज ! आपके पिता श्रीऋषभदेव प्रभुने पहले गृहस्थाश्रम - में रहकर भी पशुके समान अज्ञ मनुष्योंको व्यवहार नीतिमें प्रवृत्त किया था। इसके बाद दीक्षा लेकर थोड़े ही समय में केवलज्ञान प्राप्त कर, इस जगतके लोगों को भवसागरसे उबारने के लिए धर्म में प्रवृत्त किया । अन्तमें स्वयं कृतार्थ हो औरों को भी कृतार्थ कर उन्होंने परम पद प्राप्त किया। फिर ऐसे परम प्रभुके लिये आप क्यों शोक करते हैं ?” इस प्रकार समझानेपर चक्रवर्त्ती धीरे-धीरे राजकाजमें मन लगाने लगे । राहुसे छुटकारा पाये हुए चन्द्रमा की भाँति धीरे-धीरे शोकमुक्त होकर भरत चक्रवर्त्ती बाहर विहार भूमिमें विचरण करने लगे । विन्ध्याचलकी याद करनेवाले गजेन्द्र की तरह प्रभुके चरणोंका स्मरण करते हुए बिषादको प्राप्त होनेवाले महाराजके पास आआकर बड़े-बूढ़े लोग उनका दिल बहलाने लगे। इसीसे वे कभी कभी अपने परिजनों के आग्रहसे विनोद उत्पन्न करनेवाली उद्यान भूमिमें जाने लगे । और वहाँ मानो स्त्रियोंकाही राज्य हो वैसी सुन्दरी स्त्रियोंकी टोलीके साथ लता-मण्डपकी रमणीक शय्यापर क्रीड़ा करने लगे । वहाँ फूल चुननेवाले विद्याधरोकी भाँति जवान पुरुषों को उन्होंने फूल चुनने की क्रीडा करते देखा। उन्होंने और भी देखी कि, वाराङ्गनाएँ फूलोंकी पोशाक बना-बनाकर उनको अर्पण कर रही हैं। मानों इसी प्रकार वे कामदेवकी पूजा कर रही हों मानों उनकी उपासना करनेके लिये असंख्य श्रुतियाँ आ इकट्ठी हुई हों, ऐसी नगर-नारियाँ अंग-अंग में फूलोंके गहने पहने उनके... + ५४८
SR No.010029
Book TitleAadinath Charitra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPratapmuni
PublisherKashinath Jain Calcutta
Publication Year
Total Pages588
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, & Mythology
File Size21 MB
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