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________________ आदिनाथ-चरित्र प्रथम पर्व उत्कट ग्रीष्म ऋतु आगई। भट्टी के अन्दर की लकड़ियों से निकलने वाले उत्ताप के जैसा, घोर दुःसह पवन चलने लगा। सूर्य अपनी अग्नि-कणों के समान जलती हुई तेज़ धूपको चारों ओर फैलाने लगा। उस समय, संघ के पथिक, गरमी से घबरा कर, मार्ग में आने वाले अगल-बगल के वृक्षोंके नीचे विश्राम करने और प्याऊओं में जल पी-पीकर लेट लगाने लगे। गरमी के मारे, भैंसे अपनी जीमें बाहर निकालने और कोड़ों की मार की परवा न करके नदी की कीचड़ में घुसने लगे। बैलों पर तड़ातड़ चाबुक पड़ते थे, तोभी वे अपने हाँकने वालों का निरा. दर और मार की पर्वा न करके, बारम्बार कुमार्ग के वृक्षों के नीचे जाते थे। सूर्य की तपाई हुई, लोहे की सूइयों-जैसी, किरणों की तपतसे मनुष्य, और पशुओं के शरीर मोम की तरह गलने लगे। सूर्य नित्य ही अपनी किरणों को तपाये हुए लोहेके फलों जैसी करने लगा। पृथ्वी की धूलि, मार्ग में फैकी हुई कण्डों की आग की तरह, विषम होने लगी। संघ की स्त्रियाँ राह में आने वाली नदियों में घुस-घुसकर और कमलनाल तोड़तोड़कर अपने-अपने गलों में डालने लगीं। सेठ सार्थवाह की स्त्रियाँ पसीनों से तरबतर कपड़ों से, जल में भीगी हुई की तरह, राहमें बहुत ही अच्छी जान पड़ने लगीं। कितने ही पथिक ढाकपलाश, ताड़ और कमल प्रभृति के पत्तों के पंखे बना-बनाकर धूप से हुए श्रम को दूर करने लगे।
SR No.010029
Book TitleAadinath Charitra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPratapmuni
PublisherKashinath Jain Calcutta
Publication Year
Total Pages588
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, & Mythology
File Size21 MB
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