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________________ आदिनाथ चरित्र प्रथम पवे केवलज्ञान और केवल-दर्शन-रूपी सूर्यचन्द्रसे शोभित मेरुके समान और तीनों लोकके गुरुके समान ऋषभस्वामीका मैं पौत्र है। इसके सिवा अखण्डषट्खण्ड-युक्त महि-मण्डलके इन्द्र और विवेकको अद्वितीय निधिके समान भरत राजाका मैं पुत्र हूँ। साथही मैंने चतुर्विधि संघके सामने ऋषभस्वामीसे पञ्चमहाव्रत का उच्चारण करके दीक्षा ली है। इसलिये जैसे वीर पुरुषोंको युद्धभूमिसे नहीं भागना चाहिये, वैसेही मुझे भी इस स्थानसे लजित और पीड़ित होकर घर नहीं चला जाना चाहिये । परन्तु बड़े भारी पर्वतकी तरह इस चारित्रके दुर्वह भारको मुहूर्त-मात्र के लिये उठानेको भी मैं समर्थ नहीं हूँ। न तो मुझसे चारित्रव्रतका पालन करते बनता है, न छोड़ कर घर जानाही बन पड़ता है; क्योंकि इससे कुलको कलंक लगता है। इसलिये मैं तो इस समय एक ओर नदी और दूसरी ओर सिंहवाली हालतमें घड़ाहुआ हूँ। पर हाँ, अब मुझे मालूम हुआ, कि जैसे पर्वतके ऊपर भी पगडण्डी बनी होती है, वैसेही इस विषम मार्गमें भी एक सुगम मार्ग है। "ये साध मनोदण्ड, वचनदण्ड और कायदण्डको जीतनेवाले हैं, पर मैं तो इन्हींसे जीता.गया हूँ, इसलिये मैं त्रिदण्डी हूंगा। वैश्रमणकेशका लोच और इन्द्रियोंकी जय कर, सिर मुंड़ाये रहते हैं। पर मैं तो. छुरेसे सिर मुड़वाकर शिखाधारी हूँगा। ये स्थूल और सूक्ष्म प्राणियोंके हिंसादिकसे विरत रहते हैं, पर मैं तो केवल स्थूल प्राणियोंका ही वध करने
SR No.010029
Book TitleAadinath Charitra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPratapmuni
PublisherKashinath Jain Calcutta
Publication Year
Total Pages588
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, & Mythology
File Size21 MB
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