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________________ प्रथम पर्व আহুলা-লখি पैर देनेवाले नहीं हो। जैसे अगाध खाई में गिरकर हाथी किले तक नहीं आने पाता, वैसेही जबतक तुमसे योद्धा मेरे पास हैं, तबतक मेरे पास कोई शत्रु नहीं आ सकता। पहले तुमने कभी मुझे लड़ते नहीं देखा, इसीलिये तुम्हें व्यर्थकी शङ्का हो रही है; क्योंकि भक्ति उस स्थानमें भी शङ्का उत्पन्न कर देती है, जहाँ शङ्का करनेकी कोई गुञ्जाइश नहीं होती। इसलिये हे वीर ! योद्धाओ ! तुम सब लोग खड़े होकर मेरी भुजाओंका बल देखो, जिसमें तुम्हारी यह शंका मिट जाये, जैसे औषधिमें रोगका क्षय करनेको शक्ति है या नहीं, यह सन्देह रोग दूर होते ही दूर हो जाता है।" ___ यह कह कर भरत चक्रवर्तीने एक बहुत लब्बा-चौड़ा और गहरा गड्डा खुदवाया। इसके बाद जैसे दक्षिण-समुद्रके तीर पर सह्याद्रि पर्वत है, वैसे ही वे आप भी उस गड्डे के ऊपर बैठ रहे और बड़के पेड़के सहारे लटकनेवाली बरोहियों (जटावल्लरी) की तरह उन्होंने बायें हाथमें मजबूत साँकले एकके ऊपर दूसरी बँधवायीं । जैसे किरणोंसे सूर्यकी शोभा होती है और लताओंसे वृक्ष शोभा पाता है, वैसे ही उन एक हजार शृंखलाओंसे महाराज भी शोभित होने लगे। इसके बाद उन्होंने उन सब सैनिकोंसे कहा,- "हे वीरों जैसे बैल गाडीको खींचते हैं, वैसे ही तुम भी अपने वाहनोंके साथ पूरा जोर लगा कर मुझे निर्भय होकर खींचो। इस प्रकार तुम सब लोग मिलकर अपने एकत्रित बलसे मुझे खींचकर इस गड्ढे में गिरा दो। मेरी भुजाओंमें
SR No.010029
Book TitleAadinath Charitra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPratapmuni
PublisherKashinath Jain Calcutta
Publication Year
Total Pages588
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, & Mythology
File Size21 MB
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