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________________ प्रथम पर्व २३ आदिनाथ- चरित्र को वही आहार ग्रहण करना चाहिये, जो न तो उनके लिए कराया गया हो और न संकल्प ही साधुओं के लिए तैयार किया गया हो, न किया गया हो । सेठ जी ! जिनेन्द्र शासन में कूएँ, बावडी और तालाब का जल पीने की भी मनाही है; क्योंकि वह अग्नि वरः शस्त्रोंसे अचित किया हुआ नहीं होता ।” ये बातें हो ही रही थीं कि इतने में किसी पुरुष ने आकर सन्ध्या. कालके बादलों के समान, सुन्दर रंगवाले, प हुए आमोंसे भरा हुआ एक थाल सार्थवाह के पास रख दिया । धन सार्थवाहने, अतीव प्रसन्न चित्तसे, आचार्य से कहा- “आप इन फलोंको ग्रहण करें, तो मुझपर बड़ी कृपा हो ।” आचार्य ने कहा - "हे श्रद्धालु ! साधुओं के लिए सचित्त फलोंके छूने तक की मनाही है; खाना तो बड़ी दूर की बात है ।" सार्थवाह ने कहा- “आप महा दुष्कर व्रत धारण करते हैं। प्रमादी यदि चतुर भी हो, तोभी ऐसा व्रत एक दिन भी नहीं पाल सकता । खैर, आप साथ चलिये । आप को जो अन्न-पानादि ग्राह्य होंगे, मैं वही आपको दूँगा ।" इस तरह कहकर और नमस्कार करके, उसने उनको विदा किया । सेठ का पन्थगमन । इसके बाद सार्थवाह बड़ी-बड़ी तरड़ों वाले समुद्रकी तरह अपने चञ्चल घोड़े, ऊँट, गाड़ी और बैलोंके सहित चलने आचार्य महाराज भी मानो मूर्त्तिमान मूल गुण और उत्तर गुण हों, ऐसे साधुओं से घिर कर चलने लगे । सारे संघ के लगा।
SR No.010029
Book TitleAadinath Charitra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPratapmuni
PublisherKashinath Jain Calcutta
Publication Year
Total Pages588
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, & Mythology
File Size21 MB
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