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________________ आदिनाथ-चरित्र ४०२ प्रथम पर्व .rrrrrrrrrrrrramanan ranamnaamanaraxmmmmmnavr annr raanwar. इस प्रकार आदिनाथकी स्तुतिकर, प्रणाम करनेके अनन्तर चक्रवर्ती भक्ति-भरे हृदयके साथ मन्दिरके बाहर आये। __इसके बाद बारम्बार शिथिल करके रचा हुआ कवच उन्होंने अपने हर्षसे उछ्वसित अङ्गोमें धारण किया। माणिक्यको पूजासे जैसे देवप्रतिमा सोहती है, वैसेही अपने अङ्गोंमें दिव्य और मणिमय कवच धारण करनेसे वे भी शोभाको प्राप्त हुए । मानों दूसरा मुकुट ही हो, ऐसा बीचमें उठा हुआ और छत्रकी तरह गोलाकार सुवर्ण रत्नवाला शिरस्त्राण उन्होंने पहन लिया। उन्होंने अपनी पीठ पर सर्पकेसे तीक्ष्ण बाणोंसे भरे हुए दो तर. कस बाँध लिये और इन्द्र जैसे ऋजुरोहित नामक धनुषको धारण करता है, वैसे ही शत्रुओंको भय देनेवाला कालपृष्ट नामक धनुष अपने बायें हाथमें ले लिया। इसके बाद सूर्यकी तरह अन्य तेजस्वियोंके तेजका हरण करने वाले, भद्र गजेन्द्रकी भाँति मस्ताभी चालसे चलने वाले, सिंहकी तरह शत्रुओंको तृणके समान जाननेवाले, सर्पकी तरह अपनी दुर्विषह दृष्टिसे भय देनेवाले, और इन्द्रकी तरह बन्दी बनाये हुए देवताओंसे स्तुति करवाने वाले भरतराज निस्तन्द्र गजेन्द्र के ऊपर आ सवार हुए। कल्पवृक्षके समान याचकोंको दान देते हुए, सहस्र नेत्रोंवाले इन्द्रकी तरह चारों ओर दृष्टि दौड़ाते हुए, अपनी-अपनी सेनाओं को आया हुआ देखकर, हंस कमल-नालको ग्रहण करता है, बसेही एक-एक बाणको ग्रहण करते हुए; विलासी पुरुष जैसे रति... वार्ता करता है, वैसे ही युद्धको वार्ता करते हुए; गगन-मण्डल
SR No.010029
Book TitleAadinath Charitra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPratapmuni
PublisherKashinath Jain Calcutta
Publication Year
Total Pages588
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, & Mythology
File Size21 MB
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