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________________ - ४२६. प्रथम पर्व आदिनाथ चरित्र सारी सेनाके आगे-आगे चलने लगा। मानों शत्रुओंके गुप्तचर घूम रहे हों, इसी तरह महाराजके प्रयाणकी सूचना देने के लिये चारों ओर धूल उड़-उड़ कर फैलने लगी। उस समय लाखों हाथियोंको जाते देख, ऐसा मालूम पड़ा, मानों पृथ्वी ही गजशून्य हो गयी हो। घोड़ों, रथों, खच्चरों और ऊँटोंकी पलटन देख, ऐसा जान पड़ा, मानों अब दुनियाँमें कहीं कोई सवारी नहीं रह गयी है। जैसे समुद्रकी ओर दृष्टि करने वालेको सारा जगत् जलमयही दीखता है, वैसेही उनकी पैदल सेनाको देखकर सारा जगत् मनुष्यमयही मालूम पड़ने लगा। राहमें जाते-जाते महाराज प्रत्येक नगर और ग्राममें लोगोंको राह-राह यही कहते हुए पाने लगे,-“इस राजाने इस सारे भरत क्षेत्रको एक क्षेत्रकी तरह वशमें कर लिया है और मुनि जिस प्रकार चौदह पूर्वको मिलाते हैं, उसी प्रकार चौदहों रत्नोंको प्राप्त कर लिया है। आयुधोंके समान इन्होंने नवों निधियोंको वशमें कर लिया है। फिर इतना वैभव होते हुए भी महाराजने किस लिये और कहाँको प्रस्थान किया है ? कदाचित् अपनी इच्छासे अपना देश देखनेके लिये जा रहे हों, तो फिर शत्रुओंको दण्ड देनेवाला यह चक्ररत्न क्यों आगे-आगे जा रहा है? परन्तु दिशाका अनुमान करनेसे तो यही मालूम होता है, कि ये बाहुबलीके ऊपर चढ़ाई करने जारहे हैं। ओह, बड़े आदमियोंके कषायका वेग भी बड़ा अखण्ड होता है। वह बाहुबली देवों और असुरोंसे भी मुश्किल से जीता जा सकता है, ऐसा सुननेमें आता है, फिर उसे जीतने
SR No.010029
Book TitleAadinath Charitra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPratapmuni
PublisherKashinath Jain Calcutta
Publication Year
Total Pages588
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, & Mythology
File Size21 MB
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