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________________ प्रथम पर्व ४२७ आदिनाथ-चरित्र लेने पर भी यदि आपकी यहीं अविजय हो गयी, तो फिर यही कहना पड़ेगा, कि समुद्रको तैर जानेवाला पुरुष गढ़ेयामें डूब गया! क्या आपने यह कहीं देखा या सुना है, कि चक्रवर्तीकी प्रतिस्पर्धा करनेवाला राजा भी सुखसे राज्य कर सका हो ? हे प्रभु ! जो अपना अदब न करता हो, उसके साथ भाईचारा दिख. लाना, एक हाथसे ताली बजाना है। वेश्याओंकी तरह स्नेह• रहित बाहुबली राजापर भरतराज स्नेह रखते हैं, ऐसा कहनेसे यदि आप लोगोंको रोकें, तो भलेही रोके ; परन्तु आज तक जो चक्र नगरके बाहर यही प्रण करके ठहरा हुआ है, कि मैं तो सब शत्रुओंको जीत करही अन्दर प्रवेश करूँगा,उसे आप कैसे रोकेंगे ? भाई होकर भी जो आपका शत्रु है। ऐसे वाहुबलीकी उपेक्षा करना आपके लिये उचित नहीं है ; आगे इस विषयमें आप अपने अन्यान्य मंत्रियोंसे भी पूछ लीजिये ।” सुषेणके ऐसा कह लेने पर महाराजने एक बार अन्यान्य सव लोगोंकी ओर देखा। इतनेमें वाचस्पतिके समान प्रधान मंत्री ने कहा,-"सेनापतिने जो कुछ कहा, वह ठीक ही है। ऐसी बातें कहनेको दूसरा कौन समर्थ हो सकता है ? जो पराक्रम और प्रयास में भीरु होते हैं, वे अपने स्वामीके तेजकी उपेक्षा करते हैं। स्वामी अपने तेजके लिये जो कुछ आदेश करते हैं, उसके विषयमें अधिकारीगण स्वार्थानुकूल उत्तर दिया करते और व्यर्थ का तुलकलाम किया करते हैं। पर सेनापति महोदय वैसेही आपके तेजकी वृद्धि करनेवाले हैं, जैसे वायु अग्निको बढ़ा देती है।
SR No.010029
Book TitleAadinath Charitra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPratapmuni
PublisherKashinath Jain Calcutta
Publication Year
Total Pages588
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, & Mythology
File Size21 MB
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