SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 441
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ आदिनाथ-चरित्र ४१६ प्रथम पर्व यदि मैं भाईचारेके नाते भी उनकी सेवा करूं, तो लोग उसे चक्रवर्तीके ही नाते की हुई सेवा समझेगे ; क्योंकि लोगोंके मुंह पर कौन हाथ रख सकता है ? मैं उनका निर्भय भाई हूँ और वे आज्ञा करने योग्य हैं ; पर इसमें जातिपनके स्नेहका क्या काम है ? एक जाति ऐसे वज्रसे क्या वज्रका भी विदारण नहीं हो जाता ? सुर, असुर और मनुष्योंकी उपासनासे वे भले ही प्रसन्न हों; पर उससे मेरा क्या आता-जाता है ? सजा-सजाया रथ भी ठीक रास्तेमें हो चलनेको समर्थ होता है, टेढ़े-मेढ़े रास्तेमें तो गिर कर चूर-चूर ही हो जाता हैं। इन्द्र पिताजीके भक्त हैं, इसलिये यदि उन्होंने उनका ज्येष्ट पुत्र समझ कर भरतराजको अपने आधे आसन पर बैठाया, तो इससे वे इतना अभिमान क्यों करते हैं? इस भरतरूपी समुद्र में और-और राजा भले ही सैन्य-सहित सत्तूकी पिण्डियों की तरह समा जायें; पर मैं तो बड़वानल हूँ और अपने तेजके कारण दुस्सह भी हूँ। जिस तरह सूर्यके तेजके आगे और सबका तेज छिप जाता है, उसी तरह राजा भरत अपने समस्त हाथी-घोड़े, पैदल और सेनापतियों के साथ मेरे सामने झेप जायेंगे। लड़कपन ही में मैंने हाथीकी तरह उन्हें पैरोंसे दबा कर, हाथसे उठा कर मिट्टीके ढेलेकी तरह आसमानमें उछाल दिया था। आसमानमें बहुत ऊँचे जाकर जब वे नीचे गिरने लगे, तब मैंने यही सोचकर उन्हें फूलकी तरह स्वयंअपने ऊपर ले लिया, कि कहीं उनके प्राण न चले जायें; परन्तु अब मालूम होता है, कि वे वाचाल हो गये हैं और हारे हुए राजाओंकी खुशामद भरी बातों
SR No.010029
Book TitleAadinath Charitra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPratapmuni
PublisherKashinath Jain Calcutta
Publication Year
Total Pages588
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, & Mythology
File Size21 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy