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________________ NARA आदिनाथ-चरित्र ३४४ प्रथम पर्व होकर, आपके नौकरों की तरह, अपने अपने देशोंमें रहेगे।" सेना पति ने उनका यथोचित सत्कार करके उन्हें विदा किया और आप पहले की तरह सुखसे सिन्ध नदीके पार वापस आगया। मानो कीर्ति रूपी वल्लिका दोहद् हो इस तरह म्लेच्छों के पास से लाया हुआ सारा दण्ड उसने चक्रवती के सामने रख दिया। कृतार्थ चक्रवर्तीने उसे अनुग्रह पूर्वक सत्कार करके विदा किया। वह भी खुशी खुशी अपने डेरे पर आया । तमिस्त्रा गुफा को खोलना । यहाँ भी भरतराज अयोध्याकी तरह सुख से रहते थे; क्योंकि सिंह जहाँ जाता है वहीं उसका स्थान हो जाता है। एक रोज़ महाराजने सेनापतिको बुलाकर आदेश किया-तमिस्रा गुफाके द्वार खोलो। नरपतिको उस आज्ञाको मालाकी तरह सिर पर चढ़ाकर सेनापति शीघ्रही गुफाद्वारके पास आ रहा । तमिस्राके अधिष्ठायक देव कृतमालको मनमें याद करके उसने अष्टम तप किया ; क्योंकि सारी सिद्धियाँ तपोंमूल हैं; यानी सिद्धियो की जड तप है। इसके बाद सेनापति स्नान कर श्वेतवस्त्ररूपी पंख को धारण कर, जिस तरह सरोवरमें से हंस निकलता है उस तरह स्नान भुवनसे निकले। और सोने के लीलाकमलकी तरह, सोनेकी धूपदानी हाथमें ले, तमिलाके द्वारके पास आये । वहाँके किवाड़ देख, उन्होंने पहले प्रणाम किया क्योंकि शक्तिमान महापुरुष पहले सामभेदका ही
SR No.010029
Book TitleAadinath Charitra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPratapmuni
PublisherKashinath Jain Calcutta
Publication Year
Total Pages588
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, & Mythology
File Size21 MB
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