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________________ ३३२ आदिनाथ-चरित्र प्रथम पर्व की मञ्जिल तय करते हुए ; अनुक्रम से जैसे राजहंस मान-सरोवर पहुँच जाता है, उसी तरह चक्रवर्ती दक्खन-समुद्रके नज़दीक आ पहुंचे। इलायची, लौंग, चिरौंजी और कंकोल के वृक्षों की जहाँ बहुतायत या इफरात है, उसी दक्षिण-सागरके निकट चक्रवर्ती ने अपनी सेना का निवास कराया, महाराजकी आज्ञा से, पहले. ही की तरह, वर्द्धकिरतने-सैन्यके निवास-गृह और पौषधशालाकी वहाँ रचनाकी । उस वरदान तीर्थ के देवता को हृदय में धारण करके, महाराज ने अट्ठमका तप किया और पौषधशाला में पौषधवत ग्रहण किया। पौषध पूर्ण होने पर, पौषध घर में से निकल कर, धनुर्धारियों में अग्रसर, महाराजने कालपृष्ट रूप दण्ड ग्रहण किया और फिर सारे ही सोने से बनेहुए और करोड़ों रत्नों से जड़े हुए, जयलक्ष्मी के निवास-गृह उस रथ में सवार हुए । अनुकूल पवन से चपल-हिलती हुई ध्वजा-पताकाओं से आकाश मण्डल को भूषित करता हुआ वह रथ, नाव की तरह समुद्र में जाने लगा। रथको उसकी नाभि या धूरी तक समुद्र में ले जाकर, आगे बैठे हुए सारथि ने घोड़े रोके। रोकने से रथ खड़ा हुआ; फिर आचार्य जिस तरह शिष्य या चेले को नमाते हैं, उसी तरह पृथ्वीपति ने धनुष को नमा कर प्रत्यंचा चढ़ाई, और संग्रामरूपी नाटक के आरम्भ में नान्दी जैसा, और कालके आव्हान में मंत्र-जैसा टंकार किया। फिर लालट पर किए हुए तिलक की शोभा को चुरानेवाला बाण तरकश से निकाल कर धनुष पर चढ़ाया। चक्ररूप किये हुए धनुष के मध्य भाग में धुरे का भ्रम
SR No.010029
Book TitleAadinath Charitra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPratapmuni
PublisherKashinath Jain Calcutta
Publication Year
Total Pages588
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, & Mythology
File Size21 MB
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