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________________ आदिनाथ चरित्र ३०८ प्रथम पर्व कूट बोलना, पराई धरोहर हज़म कर जाना, और झूठी गवाही देना - ये पाँच स्थूल असत्य त्याग देने चाहिऐ । दुर्भाग्य, कासिदपना- दूतपना, दासत्व, अङ्गच्छेदन और दरिद्रता - इनको चोरीके फल समझ कर, स्थूल चोरीका त्याग करना चाहिये । नपुंसकता - नामदों और इन्द्रिय छेदनको अब्रह्मचर्य का फल समझ कर, सुबुद्धिमान् पुरुषको अपनी स्त्री में संतोष रखकर पर स्त्री का त्याग करना चाहिये । असन्तोष, अविश्वास, आरम्भ और दुःख - इन सब को परिग्रह की मूर्च्छा के फल जानकर, परिग्रह का प्रमाण करना चाहिये । दशों दिशाओं में निर्णय की हुई सीमा का उल्लङ्घन न करना, दिग्विरति नामक पहला गुणव्रत कहलाता है। जिस में शक्तिपूर्व्वक भोग उपभोग की संख्या की जाती है, उसे भोगोपभोग प्रमाण नामका दूसरा गुणव्रत कहते हैं। आर्त्त, रौद्र—ये दो अपध्यान, पापकर्म का उपदेश, हिंसक अधिकरण का देना तथा प्रमादाचरण – ये चार तरह के अनर्थ दण्ड कहलाते हैं । शरीर आदि अर्थदण्ड की शत्रुता से रहनेवाला अनर्थदण्ड का त्याग करे, वह तीसरा गुणवत कहलाता है। आर्त्त और रौद्र ध्यान का त्याग करके तथा सावद्य कर्म को छोड़कर मुहूर्त्त यानी दो घड़ी तक समता धारण करना सामायिक व्रत कहलाता है । दिन और रात सम्बन्धी दिग्वत में परिमाण किया हुआ हो, उसे संक्षेप करना देशावकाशिक व्रत कहलाता है । चार पर्वके दिन उपवास आदिक तप प्रभृति करना, कुव्यापार त्यागना; यानी
SR No.010029
Book TitleAadinath Charitra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPratapmuni
PublisherKashinath Jain Calcutta
Publication Year
Total Pages588
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, & Mythology
File Size21 MB
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