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________________ आदिनाथ चरित्र २६४ प्रथम पर्व वर्तमान स्थिति ! हाय ! मेरा पुत्र कितनी तकलीफें उठाता है, कितने कष्ट भोगता है, कि वह स्वयं पद्मखण्ड-समान कोमल होने पर भी वर्षाकालमें जलके उपद्रव सहता हैं । हेमन्त काल या जाड़ेमें जंगली मालतीके स्तम्बकी तरह हमेशा बर्फगिरनेके क्लेशको लाचारीसे सहता है और गरमीकी ऋतुमें जंगली हाथीकी तरह सूरजकी अतीव तेज़ धूपको सहता है ! इस तरह मेरा पुत्र वनमें वनवासी होकर, बिना आश्रयके साधारण मनुष्योंकीतरह अकेला फिरता हुआ दुःखका पात्र हो रहा हैं। ऐसे दुःखोंसे व्याकुल पुत्रको मैं अपने सामने ही इस तरह देखती हूँ और ऐसी ऐसी बातें कहकर तुझे भी दुखी करती हूँ। मरुदेवा माताको इस तरह दुःखों से व्याकुल देख, भरतराजा हाथ जोड़, अमृत-तुल्य वाणीसे बोला—“हे देवि ! स्थैर्यके पर्वत रूप, वज्रके सार रूप और महासत्वजनोंमें शिरोमणि मेरे पिताकी जननी होकर आप इस तरह दुखी क्यों होती हो? पिताजी इस समय संसार-सागरसे पार होनेकी भरपूर चेष्टा कर रहे हैं, उद्योग कर रहे हैं। इसलिये कण्ठमें बँधी हुई शिलाकी तरह उन्होंने अपन लोगोंको त्याग दिया है। वनमें विहार करने वाले पिताजीके सामने, उनके प्रभावसे हिंसक और शिकारी प्राणी भी पत्थरके स्खे हो जाते हैं और उपद्रव कर नहीं सकते। भूख, प्यास और धूप आदि दुःसह परिषह कर्म रूपी शत्रुओंके नाश करने में उल्टे पिताजी के मददगार हैं। अगर आपको मेरी बातों पर यकीन न आता हो, मेरी बातें विश्वास योग्य न मालूम होती हों, तो थोड़ेही समय
SR No.010029
Book TitleAadinath Charitra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPratapmuni
PublisherKashinath Jain Calcutta
Publication Year
Total Pages588
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, & Mythology
File Size21 MB
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