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________________ प्रथम पवे २८३ आदिनाथ चरित्र वाले प्रभुने एक हजार वर्ष एक दिनके समान बिता दिये। कुछ दिन बाद वे महानगरी अयोध्याके शाखा नगर पुरि भताल में आये। उसकी उत्तर दिशामें, दूसरे नन्दनवनके जैसा शकट मुख नामक वागीचा था। प्रभुने उसमें प्रवेश किया, अष्टम तप कर, एक बटवृक्षके नीचे प्रतिभारूप से स्थित प्रभु, अप्रमत्त नामक अष्टम गुण स्थानको प्राप्त हुए इसके वाद अपूर्ण करण; यानी शुक्लध्यान के पहले पाये पर आरूढ़ हो, सविचार पृथकत्व वितर्क युक्त शुक्लध्यानके पाये को प्राप्त हुए। इसके वाद अनिवृत्ति गुण स्थान एवं सूक्ष्म संपराय-सातवें गुण-स्थान को प्राप्त हो, क्षण भरमें ही क्षीण कषायत्व को प्राप्त हुए। उसी ध्यानसे क्षणमात्र में चूर्ण किये हुए लोभका नाश कर, कतक या निर्मली चूर्ण से जलके समान उपशान्त कषाय हुए। इसके पीछे ऐक्य श्रुत अविचार नामके शुक्लध्यान के दूसरे पायेको प्राप्त हो, अन्तिम क्षणमें, पलभर में ही क्षीणमोहक वारहवे गुणस्थान को प्राप्त हुए। फिर पाँच ज्ञानावर्णी चार दर्शनावर्णी और पाँच तरहके अन्तराय कर्मों का नाश करने से समस्त घाति कर्मोंका नाश किया। इस तरह व्रत लेनेके पीछे, एक हजार वर्ष बीतने पर, फागुनके महीने के कृष्ण पक्षकी एकादशी के दिन, चन्द्रमा उत्तराषाढा नक्षत्र में आया था, उस समय, प्रातःकाल में, मानों हाथमें ही रखे हों-इस तरह तीन लोकों को दिखाने वाला त्रिकाल सम्बन्धी केवल ज्ञान हुआ। उस समय दिशायें प्रसन्न हुई। सुखदायी हवा चलने लगी और नारकीय जीवों को भी क्षण भरके लिये सुख मिला।
SR No.010029
Book TitleAadinath Charitra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPratapmuni
PublisherKashinath Jain Calcutta
Publication Year
Total Pages588
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, & Mythology
File Size21 MB
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