SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 286
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ प्रथम पर्व २६१ आदिनाथ-चरित्र वृक्षके फल स्वरूप उस नूतन सम्पत्तिकी प्राप्ति का वृतान्त निवेदन किया; अर्थात् अपने पिताओं के पास जाकर उनसे कहा कि हमने स्वामीकी इस तरह सेवा की और उसके एवज़में हमें ये नवीन सम्पत्ति - विद्याधरोंका राज मिला है। इसके बाद वे अयोध्या पति महाराज भरतके पास गये और अपनी सम्पत्ति और राज पानेका सारा हाल कह सुनाया। यानी पुरुष के मानकी सिद्धि अपना स्थान बतानेसे ही होती है । शेषमें वे अपने नाते रिश्तेदारों और नौकर चाकरों- स्वजन और परिजनों को साथ लेकर उत्तम विमान में बैठ, वैताढ्य पर्वतकी ओर रवाना हुए। वेताढ्य पर्वत पर बसाये हुए ११० नगर । वैताढ्य पर्वत के प्रान्त भागको लवण समुद्र की उत्तान तरङ्गे चुमती थीं और वह पूरव तथा पश्चिम दिशा का मानदण्ड सा मालूम होता था, भरत क्षेत्र के उत्तर और दक्षिण भागकी सीमा स्वरूप वह पहाड़ उत्तर- दक्खन ४०० मील लम्बा है, पचास भील पृथ्वी के अन्दर है और पृथ्वी के ऊपर २०० मील ऊँचा है । मानो भुजायें फैलायें हो, इसतरह हिमालयने गङ्गा और सिन्ध नदियोंसे उसका आलिङ्गन किया है । भरतार्द्ध की लक्ष्मी के विश्राम के लिये क्रिड़ा घर हों- ऐसी खण्डप्रभा और तमिस्रा नामकी कन्दराएँ उसके अन्दर हैं । जिस तरह चूलिका या चोटी से मेरू पर्वत की शोभा दीखती है; उसी तरह शाश्वत प्रतिभा युक्त सिद्ध"पद शिखर या चोटीले अपूर्व शोभा झलक मारती है । विचित्र 1
SR No.010029
Book TitleAadinath Charitra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPratapmuni
PublisherKashinath Jain Calcutta
Publication Year
Total Pages588
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, & Mythology
File Size21 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy