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________________ आदिनाथ चरित्र २५० प्रथम पर्व बाकी के बालों को उखाड़ने की इच्छा की, त्योंही इन्द्रने प्रार्थना की - " हे स्वामिन्! अब इतनी केशवल्ली को रहने दीजिये, क्योंकि हवा से जब वह आपके सोने की सी कान्तिवाले कन्धे पर आती है, तब मरकतमणि की शोभा को धारण करती है । प्रभुने इन्द्रकी बात मान, वह केशवल्ली वैसेही रहने दी, क्योंकि स्वामी लोग अपने अनन्य या एकान्त मतोंकी याचना का खण्डन नहीं करते इसके वाद सोधर्मपतिने उन वालों को क्षीरसागर में फेंक आकर सूत्रधार की तरह मुट्ठी संज्ञासे बाजों को रोंका इस समय छ तप करने वाले नाभि कुमारने देव, असुर और मनुष्यों के सामने सिद्ध को नमस्कार करके 'समस्त सावद्य योगका प्रत्याख्यान करता हूँ, यह कह कर मोक्ष मार्ग के रथतुल्य चारित्र को गहण किया, शरद ऋतुको धूपसे तपे हुए मनुष्योंको जिस तरह बादलोंकी छाय से सुख होता है; उसी तरह प्रभुके दीक्षा उत्सवसे नारकी जीवोंको भी क्षण मात्र सुख हुआ । मानो दीक्षाके साथ संकेत करके रहा हो, इस तरह मनुष्यक्षेत्र में रहने वाले सर्व संज्ञी पञ्चेन्द्रिय जीवोंके मनोद्रव्यको प्रकाश करने वाला मनः पर्यवज्ञान शीग्रही प्रभुमें उत्पन्न हुआ। मित्रोंके निवारण करने बन्धुओंके रोकने और भरतेश्वर बारम्वार निषेध करने पर भी कच्छ और महाकच्छ प्रभृति चार हज़ार राजाओंने स्वामीकी पहलेकी हुई बड़ी बड़ी दयाओंको याद करके, भौंरेकी तरह उनके चरण कमलोंका विरह या जुदाई न सह सकनेसे अपने पुत्र कलत्र और राज्य प्रभृतिको तिनकेके समान त्यागकर "जो स्वामीकी गति वही हमारी गति”,
SR No.010029
Book TitleAadinath Charitra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPratapmuni
PublisherKashinath Jain Calcutta
Publication Year
Total Pages588
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, & Mythology
File Size21 MB
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