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________________ प्रथम पर्व २४५ आदिनाथ चरित्र कि जिसे जिस चीज़की ज़रूरत हो, वह आकर लेजाय। जिस समय प्रभुदान करने लगे, उस समय इन्द्रकी आज्ञासे, अलकापति कुवेर के भेजे हुए जृम्भकदेव बहुकालसे भ्रष्ट हुए, नष्ट हुए, विना मालिक के मर्यादाको उल्लङ्घन कर जाने वाले; पहाड़, कुंज, श्मसान और घरमें छिपे हुए और गुप्त रूपसे रखे हुए सोने, चाँदी और रत्नोंको जगह-जगहसे लाकर वर्षाकी तरह बरसाने लगे। नित्य सूर्योदयसे भोजन-कालतक प्रभु एक करोड़ आठ लाख सुवर्ण मुद्रायें दान करते थे। इस तरह एक सालमें प्रभुने तीन सौ अट्ठासी करोड़ अस्सी लाख सुवर्ण या सुवर्ण मुद्राओंका दान किया। प्रभु दीक्षा ग्रहण करने वाले हैं, संसार से विरक्त होने वाले हैं, यह जानकर लोगोंका मन भी विरक्त हो गया था, उनके मनोंमें भी वैराग्यका उदय हो आया था, इससे वे लोग सिर्फ जरूरतके माफ़िक दान लेते थे, यद्यपि प्रभु इच्छानुसार दान देते थे, तथापि लोग अधिक न लेते थे। प्रभुका दीक्षा महोत्सव । वार्षिक दानके अन्तमें, अपना आसन चलायमान होनेसे इन्द्र, दूसरे भरतकी तरह, भगवानके पास आया। जल-कुम्भ हाथमें रखने वाले दूसरे इन्द्रोंके साथ, उसने राज्याभिषेककी तरह जग त्पतिका दीक्षा-सम्बन्धी अभिषेक किया । उस कार्यका अधिकारी ही हो, इस तरह उस समय इन्द्र द्वारा लाये हुए दिव्य गहने और कपड़े प्रभुने धारण किये। मानो अनुत्तर विमानके अन्द्रका एक
SR No.010029
Book TitleAadinath Charitra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPratapmuni
PublisherKashinath Jain Calcutta
Publication Year
Total Pages588
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, & Mythology
File Size21 MB
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