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________________ प्रथम पव २३७ आदिनाथ-चरित्र और उसे सन्तुष्ट और राजी करता था। कोई पुरुष अपनी प्राणवल्लुभाकी लीला याखेलमें फैकी हुई गेंदको, नौकर की तरह उठालाकर उसे देता था। गमनागमन के अपराधी पतियों पर जिस तरह स्त्रियाँ पादप्रहार करती हैं, उसी तरह कितनी ही कुरंगलोचनी सुन्दरियाँ वृक्षके अग्रभाग पर अपने पांवों से प्रहार करती थीं। कोई झूले पर बैठी हुई हालकी व्याही हुई बहू या नवौढ़ा कामिनी उसके स्वामीका नाम पूछने वाली सखियोंके लता-प्रहार को शर्म के मारे मुख मुद्रित करके चुपचाप सहती थी। कोई पुरूप अपने सामने बैठी हुई भीरू कामिनीके साथ झूले पर बैठ कर, गाढ़ आलिङ्गन की इच्छासे, उसे ज़ोर से छातीसे लगानेकी ख्वाहिशसे झूले को खूब ज़ोर से चढ़ाता था। कितने ही नौजवान रसिये बाग़के दरख्तों में बँधे हुए झूलों को जब लीलासे ऊँचे चढ़ाते थे, तब बन्दरों की तरह अच्छे मालूम होते थे। वसन्त क्रीड़ासे वैराग्योत्पत्ति । लोकान्तिक देवका आगमन । उस शहरके लोग इस तरह क्रीड़ा और आमोद-प्रमोदमें मग्न थे । उनको इस दशामें देखकर प्रभु मन-ही-मन विचार करने लगेक्या ऐसी क्रीड़ा, ऐसा आमोद-प्रमोद, ऐसा खेल क्या किसी और जगह भी होता होगा ? ऐसा विचार आते ही, अवधि ज्ञानसे, प्रभुको स्वयं पहले के भोगे हुए अनुत्तर विमान तक के स्वर्ग-सुख याद आगये। उन्हें पहले जन्मों के भोगे हुए स्वर्ग-सुखोंका स्म
SR No.010029
Book TitleAadinath Charitra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPratapmuni
PublisherKashinath Jain Calcutta
Publication Year
Total Pages588
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, & Mythology
File Size21 MB
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