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________________ प्रथम पर्व १३१ आदिनाथ-चरित्र उसकी मायावी और धूर्त अशोकदत्त से मित्रता हुई है। केले के वृक्ष को जिस तरह बेरके झाड़ की संगत हितकारी नहीं होती; उसी तरह सागरके साथ उसकी मैत्री हितकर नहीं।' इस तरह बहुत देरतक विचार करके, उसने सागरचन्द्र को अपने पास बुलाया और जिस तरह उत्तम हाथी को उसका महावत शिक्षा देना आरंभ करता है, उसी तरह मीठे वचनों से उसे शिक्षा देनी आरंभ की : "हे बच्चे सागरचन्द्र ! सारे शास्त्रों का अभ्यास करने से बू व्यवहारकी सारी बातें जानता है ; तोभी मैं तुझसे कुछ कहता हूँ। अपन वैश्य लोग कला-कौशल से जीविका करनेवाले हैं। अपनके अनुद्भट और मनोहर भेषमें रहनेसे अपनी निन्दा नहीं हो सकती। इसलिये तुझे यौवनावस्था-जवानीमें भी अपने बल-पराक्रमको गुप्त रखना चाहिये । इस संसारमें, बणिक लोग, सामान्य अर्थमें भी, शङ्कायुक्त वृत्तिवाले कहलाते हैं। जिस तरह स्त्रियोंका शरीर ढका रहनेसे ही अच्छा लगता है, उसी तरह अपन लोंगोंकी सम्पत्ति, विषय-क्रीड़ा और दान सदा गुप्त रहनेसे ही अच्छे मालूम होते हैं, अर्थात् स्त्रियोंके शरीर, वैश्योंकी धनसम्पत्ति, विषय-क्रीड़ा और दानकी शोभा गुप्त रहनेमें ही है। जिस तरह ऊँटके पांवमें बँधा हुआ सुवर्णका तोड़ा अच्छा नहीं लगता; उसी तरह अपनी वैश्य जातिको अनुचित कर्म शोभा नहीं देते । अतः प्रियपुत्र ! अपनी कुल-परम्पराके अनुसार उचित व्यवहार-परायण हो कर वही करो, जो अपने कुलमें होता आया है
SR No.010029
Book TitleAadinath Charitra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPratapmuni
PublisherKashinath Jain Calcutta
Publication Year
Total Pages588
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, & Mythology
File Size21 MB
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