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________________ आदिनाथ-चरित्र ११८ प्रथम-पर्व इन को जितना करते थे, उतनेसे उन की तृप्ति न होती थी वे इन्हें और भी अधिक करना चाहते थे। वे मासोपवास आदिक तप करते थे, तोभी निरन्तर तीर्थङ्कर के वाणी रूपी अमृत के पान करने से उन्हें ग्लानि न होती थी। भगवान् वज्रसेन तीर्थङ्कर, उत्तम शुक्ल ध्यान का आश्रय कर, ऐसे निर्वाण-पद को प्राप्त हुए, जिस का देवताओं ने महोत्सव किया। __ वज्रनाभ मुनि की महिमा । अनेक प्रकार की लब्धियां । अब ; धर्म के बन्धु हों जैसे वज्रनाभ मुनि, व्रत धारण करने वाले मुनियों को साथ लेकर पृथ्विीपर विहार करने लगे अर्थात् पृथ्वी-पर्यटन करने लगे। जिस तरह अन्तरात्मा से पाँचों इन्द्रियों सनाथ होती हैं ; उसी तरह वज्रनाभ स्वामी से बाहु प्रभृति चारों भाई और सारथी—ये पाँचों मुनि सनाथ होगये। चन्द्रमा की कान्ति से जिस तरह औषधियाँ प्रकट होती हैं ; उसी तरह योगके प्रभाव से उन्हें खेलादि लब्धियाँ प्रकट हुई, कोटिवेध रससे जिस तरह बहुतसा ताम्बा सोना हो जाता है ; उसी तरह उनके जरासे श्लोष्म की मालिश करने से कोढ़ी की काया सुवर्णवत् कान्तिमती हो जाती थी ; अर्थात् उनकी नाक से निकले हुए रहँट की मालिश से कोढ़ी की काया सोने के समान होजाती थी। उन के कान, नाक और अङ्गों का मैल सब तरह के रोगियों के रोगों को नाश करनेवाला और कस्तूरी के समान
SR No.010029
Book TitleAadinath Charitra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPratapmuni
PublisherKashinath Jain Calcutta
Publication Year
Total Pages588
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, & Mythology
File Size21 MB
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