SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 522
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ (२) स्वाभावोक्ति अलंकार तो रचना में स्थल स्थल पर है यथा - १- श्रावणि सरवणि कडूयं पेड़, गजई विरहि रिकि देह बिज्ड मक्कड़ एक्ससि जेव, नैमिति विणु सहि सहिय म सच भी है- सावन के मेघों का श्रवण में कटु गर्जन, विरह में देह का वी होना और राक्षसी की भांति बिजली का चमकना कितनी स्वाभाविक उक्तियाँ है। २० माह मासि माचइ डिमरासि, देवि भगइ मइ, प्रिन पास as विषु सामिय वह सारू, नव नव पारिहिं मारइ मारु (३) यमक ४८६ १- रानि गति मइ मयणह पाह २- नव नव मारिहिं मारह मारं (४) अर्थान्तरन्यास के अनेक उदाहरण उपलब्ध होते है: १- बोलइ राजल तउ ड्डु वयणु नत्थि नैमि सम वर रय घरs तेज़ गहगण सवितान मयषि न उग्गs विश्व जाय (राजु बोली- हे सति निमि के समान दूसरा वर रत्न नहीं दी है। में तेज तभी तक रहता है जब तक गयम में पूर्व नहीं निकलवा )कितनी अनूठी उक्ति है (५) विशेषाभाव १- बहई चंद्र चंदन हिम सीउ (६) बीमा (0) INT 1 १- बति विकरि दवकरि स १- दिभि रिपि वित्त लक् गरिर्द २. जीवि णु जल जलमि , मिनाथ चतुष्पेदिका डा०यायाणी १०२१२- वही, १०४ ३- वहीं, ५०३१
SR No.010028
Book TitleAadikal ka Hindi Jain Sahitya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHarishankar Sharma
PublisherHarishankar Sharma
Publication Year
Total Pages1076
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size84 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy