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________________ ११५ विनसे न आवै न जाई योग योगेन हे समाई, सुनौ देवी पार्वती ईश्वर कथितं महाज्ञानं * उक्त उद्धरण की पावा १४वीं शताब्दी की लगती है परन्तु यह ग्रन्थ भी पूर्ण प्रामाणिक है यह कहना कति है। उक्त सभी उद्धरण १४वीं शताब्दी की प्रादेशिक भाषाओं के मय के है ऐसा विद्वानों का मत है परन्तु इनके सम्बन्ध में पर्याप्त ठोस प्रमाणों की अपेक्षा है। एक उत्कृष्ट रचना विद्यापति की कीर्तिलता भी मानी जाती है। हरचना ५वीं शताब्दी के उत्तराध की है |ST० हजारी प्रसाद द्विवेदी मी इस रचना को गद्य की रचना स्वीकार करते हैं। 3 परन्तु ५वीं शताब्दी में तो हिन्दी साहित्यके गद्य की उत्कृष्ट अजैन और जैन कृतियों मिल जाती है। · श्री अगरचन्द नाहटा ने वरूण प्रवसूरि की १४वीं शताब्दी की एक जैन विदवान की गद्य रचना की सूचना दी है जो तत्सम शब्दों से पूर्ण है तथा पर्याप्त प्राचीन है । • जो हो, अशावधि उपलब्ध इन कृतियों के आधार पर हिन्दी साहित्य की परंपरा का तारतम्य यद्यपि संस्कृत से जोड़ा जा सकता है परन्तु स्थिति फिर भी इस सम्बन्ध में बहुत स्पष्ट नहीं हो पाई है। १०वीं शताब्दी से डोडर का मय का मे उपलध हुआ है परन्तु इसके पूर्व हिन्दी की मन परंपरा दिस रूप में भी यह बहुत स्पष्टनहीं हो पाता इधर गौरव नाथ आदि का समय भी अभी विवाद का विषय बना हुआ है। ऐसी स्थिति में प्राचीन राजस्थानी की कई चैनलों ही जाती है जिसने वीं शताब्दी से ही गम की महत्वपूर्ण sarees arrfaवयविषयक रचनाएं उपलध होने लगती है। इन रचनाओं पर प्रस्तु आगे विस्वार में केन मम परंपरा के अन्तर्गत विचार किया जायगा अवक का बाचार्य १६ - देशि हिन्दीभाविकास-डा० हजारी प्रसाद द्विवेदी दी यू०पी० हिस्टोरिक डोसाइटी कि १२ पर श्री र माष्टा का ।
SR No.010028
Book TitleAadikal ka Hindi Jain Sahitya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHarishankar Sharma
PublisherHarishankar Sharma
Publication Year
Total Pages1076
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size84 MB
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