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________________ १२९ १ साथ ही ई० पू० दूसरी शताब्दी में पतंजलि ने अनेक स्थाज्य अशवबूदों का उल्लेख मी किया है। ऐसे शब्दों को अपभ्रंश कहा गया है। इधर दूसरी या तीसरी शताब्दी में हुए परतमुनि ने अपमंत को स्वतंत्र भाषा सिद्ध किया है। नाट्य शास्त्र में यह उल्लेख इष्टव्य है।' भरत ने साथ ही als ner का क्षेत्र भी निर्धारित किया है। इनके बाद अपभ्रंश के कुछ उकार बहुल शब्दों के प्रयोग- ललित विस्तार 'नामक प्राचीन ग्रन्थ मैं भी मिलते है। नाट्यशास्त्र कारों ने अवश्य प्राकृत को ही भाषा कहा है और प्राकृत भाषा को भिन्न देशों के अनुसार लिया है। बलमी के राजा धरसेन के शिला मैं भी अपभ्रंश का उल्लेख मिलता है। साथ ही संस्कृत के प्राचीन विद्वानों दंडी, मार्के आदि द्वारा भी अपक नाम के विविध प्रमाण मिलते हैं। उद्योतन सूरि अपनी कुवलयमाला में वीं शताब्दी के अय की प्रशंसा करते है तो अपने भाषा को देशी भाषा ही स्वीकार करते हैं।" इसी तरह पुष्पदंत, जमि वा मम्मट, हेमचन्द्र आदि जड भावत पर अपने मत दिए हैं जिनपर विस्तार में प्रकाश डाला जा चुका है। ६ किन्तु अपभ्रंश नाम का उल्लेह जितना प्राचीन मिलता है उतना उसका साहित्य नहीं मिलता। ही इन प्रभावों के आधार पर इसके साहित्य का प्रारम्भ व वादी से माना हो जा सकता है परन्तु वीं से भी बादी तक अपभ्रंश का उल्लेली वाहत्य अद्यावधि उपलब्ध नहीं होता। वस्तुतः व सेवावृदी में पका विक १- अबरामी कडा विडीया हीना मावास्त्र (१६-१०) इनमें अमीरी ही वीरान् वदेशाः समाचिता: प्रयोजयेत्।। नही ग्रन्थ *- faårants, #I. «g, fie wy, ty- urfa, avaarafast-go 14(to-st) ४- अपच काव्यली: श्री सावन्द्र भगवान माथी बरामद विभाषा नाटके स्मृताः विष हुई है। उकारे बहुला तज्जेतेषु भाषा ५० वाटकर। ६- वाक्य हरि - ० ४५ •
SR No.010028
Book TitleAadikal ka Hindi Jain Sahitya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHarishankar Sharma
PublisherHarishankar Sharma
Publication Year
Total Pages1076
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size84 MB
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