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________________ अभिलाषा विपदाओंके गिरि गिर सिरपर टूट पड़ें, पड़ जावें ; मेरे नियत मार्गमें शतशः विघ्न अड़ें, अड़ जावें । एक ओर संसार दूसरी ओर अकेला पर निराश साहस- विहीन हो कोने बैठ न हो दरिद्रता, पर न दीनता पास फटकने पावे; हो कुवेर चेरा पर, मेरा, मनमें गर्व न आवे । रहूँ निरक्षर किन्तु निरन्तर, सुरगुरु और शारदा जैसा शिष्य-वृन्द हो मेरा ; तो विरक्त हो समझू दुनिया चिड़िया रैन बसेरा । शील सखा हो मेरा ; होऊँ ; रोऊँ । समता अगाध वारिधिमें डूवे 'तेरा' - 'मेरा' । 0 ५० राग-रंगसे हृत्-पट मेरा रंजित भले बना हो ; पर, सवपर हो राग एक-सा, थोड़ा श्री' न घना हो ।
SR No.010025
Book TitleAadhunik Jain Kavi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRama Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1947
Total Pages241
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Biography, & Literature
File Size5 MB
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