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________________ मग्न था वह हर्ष पारावारमें, इन्द्रपद पाया मनो आहार में, खा उसे कुछ स्वच्छ शीतल जल पिया, हो गया था तृप्त-सा उसका हिया । ६ फिर विछाकर खाट टूटी, प्रेमसे, सो गया भिक्षुक बड़े ही क्षेमसे, शीघ्र श्राया स्वप्न तव उसको नया , विश्वका अधिराज में हूँ हो गया ||७|| झोंपड़ी मिटकर हुई प्रासाद है, ग्रव उसीपर पंछियोंका नाद है, भीतरी सब भाग हीरोंसे जड़े, दास जोड़े हाथ द्वारोंपर खड़े |८ वाहनोंकी भी रही है त्रुटि नही, हो गई सम्पूर्ण यह मेरी मही, दिव्य था ग्राभूषणोंसे गात्र भी, था वना लावण्यका शुभ पात्र ही 18 1 दिव्य देवी मंचपर वह शोभता नारियोंके मुग्ध मनको मोहता दासियाँ पंखा दुलाती थीं खड़ी सौख्यकी देखी न थी ऐसी घड़ी |१० 1 २६ - ' , "
SR No.010025
Book TitleAadhunik Jain Kavi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRama Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1947
Total Pages241
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Biography, & Literature
File Size5 MB
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