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________________ सीताकी अग्नि-परीक्षा "हे नाथ, दो आदेश, कर विषपान दिखलाऊँ यहाँ , अथवा भयंकर सर्पको करसे पकड़ लाऊँ यहाँ । पड़ अग्निमें जगको दिखा दूं गील कहते हैं किसे , वह कृत्य कर सकती, कभी मानवन कर सकता जिसे।" श्री राम वोले "जानता मै शील तव निर्दोप है, तो भी कुटिल यह जग तुझे देता निरन्तर दोप है । घुस अग्निके ही कुण्डमें अपनी परीक्षा दो हमें , जिससे तुम्हारे शीलका, 'सन्देह' जगतीमें शमे ।" x अपनी परीक्षाके समय जनकात्मजा वोली यही , "मनसे वचनसे कायसे परको कभी चाहा नहीं। यदि, हे अनल, मिथ्यावचन हो भस्म कर देना मुझे, कैसी सदा में विश्वमें हूँ, यह बताना है मुझे।" शुभ जाप जपती मन्त्रका उस कुण्डमें कुदी तभी , तत्काल निर्मल नीरसे, वह भर गई वापी तभी। कुछ काल पहले,हा, महा विकराल ज्वालाथी जहाँ , अधुना सरोवर पद्मिनीमय शोभता सुन्दर वहाँ । सुन्दर सरोवर मध्य देवी-सी दिखाती जानकी , शुभ सत्यके रक्षार्थ यों परवा न की निज प्राणकी । (एक अंश) - २४ -
SR No.010025
Book TitleAadhunik Jain Kavi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRama Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1947
Total Pages241
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Biography, & Literature
File Size5 MB
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