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________________ पंडित मूलचन्द्र 'वत्सल विद्यारत्न पं० मूलचन्द्रजी 'वत्सल', साहित्यशास्त्री, समाजके पुराने सरस कवि हैं। पच्चीस वर्ष पूर्व प्राप कविताके क्षेत्रमें प्रविष्ट हुए थे। उस समय खड़ी बोलीकी कविताओंका जैन कविता-क्षेत्रमें अभाव-सा था। आपके द्वारा प्रवाहित काव्यधाराने एक नवीन दिशाका प्रदर्शन किया। जाति-सुधार और सामाजिक क्रान्तिके लिए आपकी कविताएँ वरदान सिद्ध हुई। काव्य-क्षेत्रमें आपने जिस निर्भीकताका परिचय दिया वह स्तुत्य है। आप जैन पौराणिक कहानियों और नई शैलीके गद्य लेखोंके प्रमुख प्रचारकों और मार्ग-दर्शकोंमेंसे हैं। आपकी प्रतिभा बहुमुखी होनेके अतिरिक्त सदा-जाग्रत है। हिन्दीकी काव्य-धारा परिस्थितियों और प्रभावोंके आधीन जो दिशा पकड़ती गई, श्राप सावधानीसे स्वयं उसका अनुगमन ही नहीं करते गये किन्तु समाजके कवियोंका नेतृत्व भी करते रहे हैं। अमरत्व मैं अग्निकणोंसे खेलूंगा। वह लाँघ-लांघ पर्वतमाला, रे, बढ़ी आ रही है ज्वाला , मैं उसको पीछे ठेलूंगा, मैं अग्नि कणोंसे खेलूंगा। ' मैं तो लहरोंसे खेलूंगा। रे वह प्रमत्त सागर कैसा, लहराता प्रलयंकर जैसा, मैं उसे करोंपर ले लूंगा, मैं तो लहरोंसे खेलूंगा। मैं मृत्यु-किरणसे खेलूंगा। ' मैं अमर, अरे, कव मरता हूँ, अमरत्व लिये ही फिरता हूँ, मैं यम-दण्डोंको झेलूंगा, मैं मृत्यु-किरणसे खेलूंगा। - २० -
SR No.010025
Book TitleAadhunik Jain Kavi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRama Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1947
Total Pages241
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Biography, & Literature
File Size5 MB
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