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________________ '' ! नर्मदे, तू कौन है, कह तो तनिक, काम तेरे हैं अलोकिकता भरे ; परिक्रमा देती उवर 'ऊँकार' की, इबर इनके चरणमें मस्तक घरे । क्या यही दृष्टान्त है दिखला रही एक-सी हो उभय धारा तू यहां ; जैन, वैष्णव आदि सव ही एक हैं, एक उद्गम, एक मुख सवका वहाँ । सिद्धवर, भाओ यही व भावना, वीर प्रभु-सा शीघ्र ही अवतार हो ; दानवः दुर्भाव मारे नष्ट हों, 1 मुक्त हों हम, देशका उद्धार हो । नीच और अछूत नालीके मैले पानीसे में बोला हहराय, "होले वह रे नीच, कहीं तू मुझपर उचट न जाय" । "भला महाशय" कह पानीने भरी एक मुस्कान, वहता चला गया गाता-सा एक मनोहर गान । एक दिवस मैं गया नहाने किसी नदी तीर, ज्यों ही जल प्रज्जलिमें लेकर मलने लगा शरीर । त्यों ही जल बोला, "मैं ही हूँ उस नालीका नीर", लज्जित हुआ, काठ मारा-सा मेरा सकल शरीर । तुन तोड़ी 'मुँह में डाली' वह वोली मुसुकाय"ओह महाशय, बड़ी हुई में नालीका जल पाय । १८ -
SR No.010025
Book TitleAadhunik Jain Kavi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRama Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1947
Total Pages241
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Biography, & Literature
File Size5 MB
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