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________________ अज सम्बोधन (वध्यभूमिकी ओर ले जायजानेवाले बकरेसे) हे अज, क्यों विषण्ण-मुख हो तुम, किस चिन्ताने घेरा है ? पैर न उठता देख तुम्हारा, खिन्न चित्त यह मेरा है; देखो, पिछली टाँग पकड़कर तुमको वधिक उठाता है; और ज़ोरसे चलनेको फिर धक्का देता जाता है ।। कर देता है उलटा तुमको, दो पैरोंसे खड़ा कभी , दांत पीसकर ऐंठ रहा है, कान तुम्हारे कभी-कभी ; कभी तुम्हारे क्षीण-कुक्षिमें मुक्के खूब जमाता है, अण्ड' कोषको खींच नीच यह फिर-फिर तुम्हें चलाता है ।२। सहकर भी यह घोर यातना तुम नहिं कदम बढ़ाते हो, कभी दुवकते, पीछे हटते, और ठहरते जाते हो; मानो सम्मुख खड़ा हुआ है सिंह तुम्हारे बलधारी , आर्तनादसे पूर्ण तुम्हारी 'मैं...मैं..' है इस दम सारी ।।
SR No.010025
Book TitleAadhunik Jain Kavi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRama Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1947
Total Pages241
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Biography, & Literature
File Size5 MB
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