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________________ चन्देरी रहे चिरन्तन चन्देरी जिसको निज मान दुलारा है । उठा उच्च शिर-शृंग विध्य-गिरि नित रक्षा-रत होता , वेत्रवतीका परम पूत पय पादाम्बुजको घोता , 'जिसका नाम-स्मरणमात्र मनसे कायरपन खोता , सदा काल अद्भुत साहसका रहा सलोना सोता। धीर-वीर रणसिंह-वती कुल-लाजधरोंका प्यारा है। जिसने स्वाभिमानसे अपना ऊंचा शीश उठाया , ' उस शिशुपाल नृपाल श्रेष्ठका सुयश महीमें छाया , ' . जहाँ कन्दराओंमें अनुपम मूर्तिसमूह रचाया , तपकर वहाँ महर्षिवरोंने ज्ञान अनोखा पाया। जिनके अनुगामी हैं समझे 'तृणवत् भूतल सारा है'। कीतिपालकी कीर्ति कीर्तिगढ़, यहाँ अचल अभिमानी, बुन्देलोंके प्राणदानको जो अमरत्व प्रदानी , राजपूत महिलाओंके जौहरकी अमिट निशानी , कण-कण कथित यहाँ राणा साँगाकी विजय-कहानी। प्रण-पालन हित प्राणार्पण-युत वही त्यागकी धारा है। शिल्पकला-कौशलकी कोने-कोने फैली राका , . 'वस्त्र-कलामें निपुण, मध्य-भारतका यह है ढाका , रिक्त न होवे कभी रम्यता कोप विपुल सुपमाका , - गूंज रहा है आज सिन्धियाके प्रतापका साका । आत्मशक्ति-साहसके मदमें यश-सौरभ विस्तारा है। - १२८ -
SR No.010025
Book TitleAadhunik Jain Kavi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRama Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1947
Total Pages241
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Biography, & Literature
File Size5 MB
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