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________________ गन्व प्रकृतिके लिए नियत हो जिनकी, ऐसे ज्योतिर्मय, सुमनोंके मुरतरु अनन्त, माँ उपजा इस उर प्रांगनमें। मनन 1 मौन रजनीकी गहन निस्तब्धताको चीर, स्वर भगा fare भरका खींच श्रेष्ठ समीर | युग युगोंकी चेतना मोई, उठी है जाग उगल दूंगा 'कवि हृदयसे काव्यकी-सी ग्राग' । विविध रूपोका मुसाफ़िर, मिन्दुका हूँ नीर, जगत् संसृति चित्रपटकी एक क्षुद्र लकीर | चांदनी ने कहे क्या बात निज इतिहास, गगनसे क्या कुछ छिपा है तड़ित चपल - विलास । विश्वका कण-कण परस्पर कर रहा, ग्रालाप 1 मुझे अपने में मिलानेके लिए चुपचाप । खुद समझ लूँगा बताता पूछने पर कौन, नित्य दे याती उपा रविको निमन्त्रण मीन । वीर जौहर व्रत करूँगा सहन कर हर व्यावि, लगी ध्रुव ध्रुव तक रहेगी यह अनन्त समाधि । मावनायें लीन था में नेत्रसे श्राभास एक निकला, किया जिसने रूपका विन्यास | 1 १२२
SR No.010025
Book TitleAadhunik Jain Kavi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRama Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1947
Total Pages241
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Biography, & Literature
File Size5 MB
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