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________________ शिखर रमणीक गगनचुम्बी, सर्व गुणसे हो तुम भरपूर ; देखकर तुम्हे मानियोंका मान होता है चकनाचूर । कहीं तुम, निर्मित हो ऐसे, चहूँ दिश निर्जन सूनापन ; तपस्वी निश्चय हो स्वयमेव, तपस्वी के हो जीवन धन । मूर्तियाँ विश्वेश्वरकी रम्य, वेदिका ऊपर निश्चल हैं ; भाव ग्रवलोकनसे होते परम पावन प्रति निर्मल हैं । किसी बीहड़ वनमें तुम मौन, वने भग्नावशेप, खंडहर ; समय पाकर निर्दय दुष्टा जराने किया जीर्ण जर्जर | धराशायी, ग्रो भग्नावशेष खडहर, जीर्ण-शीर्ण मन्दिर, प्रशंसा करता जन समुदाय तुम्हारे चरणांपर गिर-गिर | कवि कैसे कविता करते हैं ? कवि, कैसे कविता करते है ? मैं यही विचारा करता हूँ, ये कवितापर क्यों मरते है ? जीवन-पथ इनको कटकमय वाधाथोंमें ध्रुत सत्य विजय, दुनियाका सुख-दुख लिखनेको, लगता है इनको अल्प समय । कविकी उस तुच्छ तृलिकामे मधु-प्रक्षर कैसे भरते हैं ? i १०९ - - 3
SR No.010025
Book TitleAadhunik Jain Kavi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRama Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1947
Total Pages241
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Biography, & Literature
File Size5 MB
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