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________________ श्री कपूरचन्द्र, 'इन्दु' श्री कपूरचन्द्र 'इन्दु' सम्भवतः कई वर्ष पहले से कविता लिख रहे हैं, किन्तु इधर हालमें ही जो उनकी कविताएँ पत्रों में प्रकाशित हुई हैं, उनसे 'इन्दु' जोकी प्रतिभा विषयमें बहुत अच्छी धारणा बन जाती है । पकी कविताओंका केन्द्रवर्ती दार्शनिक भाव प्रभिनव शब्द-व्यंजनाके द्वारा जब व्यक्त होता है तो वह परिचित होते हुए भी अनूठा लगता है । अपने मौलिक भावके लिए यह तदनुकूल शब्द और शब्द-सङ्कलन गढ़ लेते हैं । प्रापको 'कवि-विमर्श' नामक कविता जो यहाँ दी जाती है वह श्रापकी शैलीका सुन्दर उदाहरण है । मधु पुराना ही है, किन्तु प्याली एकदम नई और आकर्षक ! कवि-विमर्श सरावोर प्यालीका तो रस, नही कभी प्रिय छलक सकेगा । अधजल गगरी छलका करती, पूरण-घट रहता है निश्चल, चन्द' पड़े शवनमके' क़तरे, हरित बना देंगे क्या मरुथल, रस छलकानेका न समय है, पड़ते घीकी भाँति जलेगा, सरावोर प्यालीका तो रस, नहीं कभी प्रिय छलक सकेगा । शाश्वत निधन-हीन रहते क्या सुख-दुख कृत संसार नही है, संसारी कर्मोसे लिपटा, वह बन्धनसे पार नहीं है, मुक्त हुए 'मानव' कैसा फिर, सुख-दुखका भागी न रहेगा सरावीर प्यालीका तो रस, नहीं कभी प्रिय छलक सकेगा । 1 ९३ SP -
SR No.010025
Book TitleAadhunik Jain Kavi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRama Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1947
Total Pages241
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Biography, & Literature
File Size5 MB
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