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________________ मैं पतरकी सूखी डाली चौराहे पर पाँव जमाये, भूतों-सा कंकाल बनाये 2. सूखा पेड़ खड़ा मुँह वाये, जो लम्बी बाहें फैलाये,. मैं उसकी हूँ उँगली काली ; मैं पतझरकी सूखी डाली । झर झरकर फल-पत्ते छूटे, लुटा रूप रस पंछी रूठे, युग-युगके गठबन्धन टूटे, बिन अपराध भाग क्यों फूटे ? सूखे तन, भूखे मनवाली , मैं पतझरकी सूखी डाली ! फैला केश रात जब रोती, नभकी छाती धक-धक होती सन्नाटे में दुनिया सोती, मैं उल्लूका बोझा ढोती , ताली ; डाली ! वह गाता में देती मैं पतझरकी सूखी 1 जो जगकी बातोंपर जाऊँ, एक साँसमें ही मर जाऊँ, मैं न किन्तु वह, जो डर खाऊँ, जीवनके नूतन स्वर गाऊँ , 'अजर, अमर, मैं प्राशावाली' ; मैं पतझरकी सूखी डाली ! पतझर कितने दिनका भाई, सुनो, पवन सन्देशा लाई, अम्वरपर छाई अरुणाई, लो, वसन्तकी ऊषा श्राई, भूलेगा न मुझे वन- माली ;नहीं रखेगा सूखी डाली ।
SR No.010025
Book TitleAadhunik Jain Kavi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRama Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1947
Total Pages241
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Biography, & Literature
File Size5 MB
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