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________________ नदीश्वरप्रसकपा ॥ (२९) वंशइक्ष्वाक प्रगटचक्रवे । ताकीआनि खंडपटचवे ॥११॥ पाट बध रानी नृप तीन । गंधारी जेठी गुण लोन ॥ प्रियमित्रा रूपश्री नाम । साधेधर्मअर्थ अरुकाम ॥ १२ ॥ सुखसे रहत बहुत दिनभये । ऋतु वसंत कन राजागये ॥ जलक्रीड़ावनक्रीडाकरें। हास्य बिलासप्रीतिअनुसरें॥१३॥ तावनमध्य कल्पद्रुममूल । चंद्रकांतिमणि शिलानुकूल ॥ मंडपलताअधिकविस्तार । चारणमुनिआयेतिहिवार ॥१४॥ अरिजय अमितंजय नाम । सामदयालु धर्म के धाम ॥ राजारानी पुरजननारि। देखमुनितिनहष्टिपसारि ॥१५॥ सत्र नर नारि अनंदित भये। कोडातजमुनिबन्दनगये ॥ त्रियापुरुषचरणोंअनुसरे । अष्टद्रव्यसुनिपूजेखरे ॥ १६.॥ धर्म ध्यान कहो मुनिराय । श्रद्धा सहित सुनो करभाय ॥ राजाप्रश्नकरीमुनिपास । सुनो धर्म भयोचित्त हुलास ॥ १७ ॥ दलबलसहितसम्पदाघनी । और भूमिषट खंडजोतनी॥ महापुण्य जोयहफलहोइ॥ गुरुविनज्ञाननपावेकोइ ॥१८॥ बार २ विनवे कर सेव । पूर्व कहो भवान्तर देव ॥ अवधिज्ञानबलमुनिवरकहै। परअहिक्षेत्रवनिकएकरहै। सुखित कवर मित्रता नाम । साधे धर्म अर्थ अरु काम ॥ जेष्ठ पुत्रश्रीवर्मकुमार । मध्यमजयवर्मा गुणसार ॥२०॥ लघुजयकीर्ति कार्ति विख्यात । तीनोशुभआनंदितगात ॥ एकदिवसउपजोशुभकर्म । वनमें आये मुनिसौधर्म ॥२९॥ सेठ पुत्र मुनिवर बंदियो । श्रीवा जो अठाई लियो। नंदोश्वरव्रतविधिसेपाल । भव २ पापपुंजकोजाल ॥२२॥ अंतसमाधि मरण को प्राय । इस पर वज़बाहु नपआय ॥ ताकेविमलारानीजान । तुमहरिसेनपत्रभये आन ॥२३॥ पूर्व व्रत पालो अभिराम । ताते लही सुक्खको धाम ॥ जयवर्माजयकीर्तिवीर । निकट भव्यगुणसाहसधीर ॥२४॥ - manand
SR No.010024
Book TitleJain Vrat Katha Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorLala Jainilal Jain
PublisherLala Jainilal Jain Saharanpur
Publication Year
Total Pages39
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size2 MB
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