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________________ ( २२ ) रतिकथा | तहांआयु पूरणकर सोय । चलतभयो मथुराको लोय ॥ श्रीधरराजा राजकरंत । तोकेसुतउपजोगुणवंत ॥ २७ ॥ नामपदुमरथ मंडितभयो । एक दिवस वनक्रीड़ा गयो | गुफामध्यमुनियरको देख | वन्दनकरसुनधर्मविशेष ॥२८॥ वहां पूछे मुनिवरसेसोय । तुमसे अधिक प्रभाप्रभुकोय ॥ . तब मुनिवरवोलेसुनबाल | बासपूज्य जिनदोप्तिविशाल ॥२ चंपापुर राजें जिनराज | तेज पुंज प्रभु धर्म जहाज ॥ ; । यहसुनधर्मविषेचितदयो । समोशरणजिनवंदनगयो ॥ ३० ॥ नमस्कारकर दीक्षा लई । तपकर गणधर पदवी भई ॥ अष्टकर्मइसबिधिसेजार । पहुंचो शिवपुरसिद्धिमकार ||३१|| लखोभष्यव्रतका सोप्रभाव । राजभोगिभय शिवपुरराव | जोनरनारिकरे व्रतसार । सुरसुखलहिपावेंभवपार ॥ ३२ ॥ ॥ इति श्रीमुक्तावली व्रतकथासम्पूर्णम् ॥ श्रीरविव्रतकथा | चौपाई ॥ श्री सुखदायक पार्स जिनेश । सुमति सुगति दाता परमेा ॥ सुमशारदपद अरिवंद | दिनकरवृतप्रगटोसानंद ॥ १ ॥ बाणारस नगरी सुविशाल । प्रजापाल प्रगटो भूपाल ॥ मतिसागरत हांसेठ सुजान । ताकाभूपकरेसन्मान ॥ २ ॥ तासुत्रिया गुणसुंदरिनाम । सात पुत्र ताके अभिराम ॥ पटसुतभोग करें परणीत | बालरूपगुणधरसुविनीत ॥ ३ ॥ - सहस्रकूटशोभितजिनधाम । आयेयतिपतिखंडितकाम ॥ सुनमुनिआगमहर्षितभये । सर्वलोगवन्दनकोगयें ॥ ४'n गुरुवाणी सुनके गुणवती । सेठिन तब जो करीबीनंसी ॥ 1
SR No.010024
Book TitleJain Vrat Katha Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorLala Jainilal Jain
PublisherLala Jainilal Jain Saharanpur
Publication Year
Total Pages39
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size2 MB
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