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________________ जैन समाज में आवश्यक इस तरह समाहृत नहीं है। इसका कारण यह है कि आचार्यों की शृङ्खला टूट जाने से व्यवस्था भङ्ग सी हो गई है। ___आम तौर पर 'आवश्यक' के छै विभाग हैं; सामायिक, चतुर्विंशति स्तब, वन्दन, प्रतिक्रमण, कायोत्सर्ग और प्रत्याख्यान । पहला विभाग सामायिक है। सब प्राणियो के साथ सम भाव से पेश आना अर्थात् आत्मतुल्य व्यवहार करना सामायिक का लक्षण है। समता, सम्यक्त्व, शान्ति, सुविहित आदि सामायिक के लक्षण है। सामायिक के तीन भेद है ; सम्यक्त सामायिक, श्रुत सामायिक और चारित्र सामायिक । सम भाव का पालन वस्तुतः सम्यक्त, श्रुत और चारित्र के द्वारा ही हो सकता है। अतएव ये भेदयुक्त युक्ती है । चारित्र के भी दो भेद हैं ; देश चारित्र सामायिक और सर्व चारित्र सामायिक । 'देश' श्रावकों के लिये और 'सर्व' साधुओं के लिये उपयुक्त होता है। जैनधर्म के प्रवर्तक चौबीस तीर्थकर हुए है, वे वस्तुतः सर्वगुण सम्पन्न, जैनधर्म की-जैन समाज की चोटी के चूडामणि एवं आदर्श है अतएव इन महात्माओं की स्तुति करना ही 'आवश्यक निया' का दूसरा विभाग बनाया गया है। इसके दो भेद होते हैं । एक व्यस्तव, दूसरा भावस्तव। जल, चंदन, पुष्पादि वस्तुओं द्वारा तीर्थङ्करों की जो पूजा की जाती है, वह द्रव्यस्तव है और यह गृहस्थों के लिये उपयुक्त माना जाता है। तीर्थंकरों के सच्चे गुणों का कीर्तन करने का नाम भावस्तत्र है। यह साधुओं के लिये उपयुक्त है। _ मन, वचन और शरीर के जिस व्यापार के जरिये पूज्यों के प्रति आदर प्रकट किया जाता है, वह वन्दत है। द्रव्य और भाव रूप दोनों चारित्रों से सुसम्पन्न आचार्य, उपाध्याय, प्रवर्तक, स्थविर, गणि. गणावच्छेदक आदि वन्दनीय है। शुभ योग से अगर कोई गिरकर अशुभ योग के मैदान पर चला आया है और वहां से फिर शुभ योग के उच्चतम शिखर पर जाने की चेष्टा करता है अथवा अशुभ योग का परित्याग करके क्रमशः शुभ योग पर जाने का प्रयत्न करता है उसी का नाम 'प्रतिक्रमण' है। ____ निवृत्ति, निन्दा, परिहरण, वारण, गर्दा, शोधि इत्यादि प्रतिक्रमणके पर्याय वाचक शब्द हैं। प्रतिक्रमण का अर्थ वस्तुतः परावर्तन अर्थात् पीछे की ओर लौटना है। आत्म शक्तियों के सम्पादनार्थ प्रतिक्रमण इष्ट है अतएव उपर्युक्त सुप्रशस्त 'प्रतिक्रमण' कहा जाता है। इस प्रतिक्रमण के पांच भेद है ; देवसिक, रात्रिक, पाक्षिक, चातुर्मासिक और साम्वत्सरिक ! भूत, वर्तमान और भविष्य इन कालकृत भेदों से प्रतिक्रमण के तीन भेद हैं। भूतकाल के संचित दोषों के लिये पश्चात्ताप करना, वर्तमानकाल में दोपों को पास न फटकने देना और भविष्य में होने वाले दोषों को न होने देना, ये तीन कालकृत प्रतिक्रमण हैं। सम्यक्त को प्राप्त करने के लिये मिथ्यात्व का परित्याग, विराग प्राप्त करने के लिये अविराग का त्याग, क्षमा आदि गुणों की प्राप्ति के लिये कपाय का परिहार और आत्म स्वरूप के लाभ के लिये सांसारिक व्यापार से निवृत्त होना ये चार प्रतिक्रमण के लक्ष्य है। अर्थात् इन्हीं चारों का क्रमशः प्रतिक्रमण करना चाहिये। _हेय और उपादेय भेद से प्रतिक्रमण दो तरह का है ; द्रव्य प्रतिक्रमण और भाव प्रतिक्रमण । द्रव्य प्रतिक्रमण वह है जो दोषों का प्रतिक्रमण करके फिर से उन्हीं दोपों को किया जाता है। यह वनावटी
SR No.010020
Book TitleJain Ratnasara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSuryamalla Yati
PublisherMotilalji Shishya of Jinratnasuriji
Publication Year1941
Total Pages765
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size32 MB
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