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________________ :- - [ ४] ओले। १५ सचित्त मिट्टी। १६ रात्री भोजन। १७ दही बड़े ! १८ बैगन । १६ पोश्ता । २० सिंघाड़ा। २१ कार्यवानी। २२ खसखस के दाने। दही को गरम करके जिस चीज में डाला जाता है वो अभक्ष्य नहीं होता है। ३२ अनन्तकाय १ भूमि कन्द। २ कच्ची हलदी। ३ कच्ची अदरख । ४ सूरन। ५ लहसुन। ६ कच्चू। ७ सतावरी। ८ विदारी कन्द । ६ घीकुआर। १० थुहरी कन्द । ११ नीम गिलोय । १२ प्याज । १३ करेला । १४ लोना। १५ गाजर। १६ लोढी पद्म कन्द। १७ गिरिकी। १८ किसलय ( कोमल पत्ते काला सफेद)। १६ खीर सुआ कन्द ( कसेरू ) । २० थेग कन्द। २१ मोथा। २२ लोन वृक्ष का छाल। २३ खिलोड कन्द । २४ अमृत वेल । २५ मूली। .२६ भूमीफोड़। २७ बथुआ। २८ बरुहा । २६ पालक ! ३० कोमल इमली। ३१ सुअरवल्ली। ३२ आलू कन्द । ४ महाविगय मांस, मदिरा. मक्खन, मधु। ये बिलकुल अभक्ष्य हैं। मक्खन में छा से निकालने के दो घड़ी बाद जीव उत्पन्न हो जाते है इसलिये मक्खन अभक्ष्य माना गया है। यदि छा में ही पड़ा रहे तो जीव नहीं उत्पन्न होते हैं या मक्खन को छा से निकालने के बाद तपा लेने से जीव नहीं पैदा होते हैं। ५ उम्बर फल . उम्बर फल, बड़ का फल, पीपल का फल, नीम का फल (कच्ची निमोली ), मूलर। "कोमल फलं च सर्व" इस पाठ के अनुसार जितनी भी कोमल चीजें हैं भक्षण करने योग्य नहीं हैं। और जिस चीज के बीज अच्छी तरह न गिन सकें वे तब तक अनन्तकाय हैं। इन अभक्ष्यों सब्जियोंको सुखाकर रखना जेन समाजमे जो प्रथा चल रही है वह जैन सिद्धान्तानुसार बिलकुल विपरीत है कारण अभक्ष्य पदार्थ सूख जाने पर भी भक्ष्य नहीं हो सकते । खाने योग्य पदार्थ 'व्यञ्जन (तरकारी, शाक) आम्बी (कैरी), इमली, ओलगोभी ( बङ्गाल), कमरख, काचर, करेला, केला कच्चा, करोंदा, कद्दू (लौकी), कुंदरू, ककरोल, कैर. केले का फूल, कचनार, गोभी ( फूल ). गोभी (गांठ ), गोभी (पत्ता ), चना (छोला ), टमाटर, तुरइ (अर्रा), तुरइ (धीआ), पीपल (चूर्णकी ), परवल, बडहर, भिण्डी, मिरच बड़ी, मिरच पतली, मटर, लसोढ़ा ( ल्हेसुआ), वावलिया; सेंव की फली, सहाजने की फली, सोगरी ( मोगरी), गेहूं की फली, कचनार की फली, जौ का सिट्टा, जवार का सिट्टा, बाजरे का सिट्टा । चउलाई की फली, मकई की फली, वोड़े की फली, मूंग की फली। - कन्द . -अदरख, अरवी, आलू, ओल; कसेरू, कमलगट्टे की जड़ (मे), गाजर, प्याज, मूंगफली (चीना बदाम), मूली, लहसुन, सकरकन्द आदि । जैन शास्त्रों में श्रावकों को अभक्ष्य अर्थात् (नहीं खाने योग्य पदार्थ) खाना नहीं बताया है।
SR No.010020
Book TitleJain Ratnasara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSuryamalla Yati
PublisherMotilalji Shishya of Jinratnasuriji
Publication Year1941
Total Pages765
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size32 MB
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