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________________ [ २६ ] माता पिता के बहुत आग्रहकरने पर और उनके चित्त को संतोष देने के लिए भगवान् ने वैवाहिक सम्बन्ध स्थापित किया। उनकी पत्नी का नाम यशोदा था। उनके एक कन्या भी हुई जिसका नाम प्रिय दर्शना था। ___ माता पिताके स्वर्गवास होने पर वर्धमान स्वामी ने दीक्षा लेनेकी पूरी तैयारी कर ली थी, इससे ज्येष्ठ बन्धु को कष्ट होते देख उन्होंने गृहस्थ जीवन की अवधि दो वर्ष और बढ़ा दी। इन दोनों बातों से भगवान् के स्वभाव के दो दृष्य स्पष्ट रूप से विदित होते हैं। एक तो बड़े बूढों के प्रति आदर तथा बहुमान और दूसरे मौके को देख कर मूल सिद्धान्त में बाधा न पड़ने देते हुए समझौता करने की उदारता। इस प्रकार ३० वर्ष की तरुण अवस्था में वर्धमान स्वामी ने गृह को सर्वथा त्याग कर दीक्षा ग्रहण की। १२ वर्षों तक अनेक उपसर्ग सहे उनके पांवों पर ग्वाले ने खीर पकाई, उनके कानों में कीले गाड़े गये। इतने भीषण एवं हृदय विदारक उपसर्गों को सहते हुए जव पूर्ण सत्य सामने आ गया और अज्ञान का नाश होकर केवल ज्ञान रूपी सूर्योदय का प्रकाश हुआ तब उन्होंने कहा : न श्वेताम्बरत्वे न दिगाम्बरत्वे, न तत्त्ववादे न च तर्क वादे । न पक्षसेवा श्रयणेन मुक्ति, कषाय मुक्ति किल मुक्ति रेव ॥ अर्थात् न श्वेताम्बर हो जाने से ही, न दिगम्बर हो जाने से ही और न तर्कवाद के आश्रय से ही मुक्ति होनी है प्रत्युत् सच्ची मुक्ति तो क्रोध, मान, माया और लोभ रूप कषायों से छुटकारा पाने से ही मुक्ती होती है। भगवान्की भावनाएं उदार थीं । उनका अन्तः करण विशाल था। उन्होंने किसी एक क्षेत्रमें नहीं, एक उपाश्रय एवं मंदिर में नहीं, वरन् जगह जगह पर जाकर उपदेश दिये उनके समवसरण में प्रत्येक जाति के लोग सम्मिलित होते थे। भगवान् के उपदेश तत्त्व पूर्ण थे। उनमें किसी तरह का आडम्बर अथवा मान पाने की इच्छा न थी यही वह धर्मोपदेश किसी वस्त्रधारी साधु या देश के लिये था प्रत्युत् सारे संसार के लिए था। उन्होंने साम्यवाद (अर्थात् धर्म ऊंच नीच, स्त्री पुरुष, ब्राह्मण व चंडाल सब बरावर हैं) के सिद्धांत को प्राणी मात्र के लिए व्यापक बना दिया। भगवान् वीर ने लोगों को स्वावलम्बी बना कर उन्हें धर्मवीर, कर्मवीर, युद्धवीर और दानवीर बनाया। उन्होंने बताया कि संयम और तप के एक साथ मेल का नाम अहिंसा है। तप के अन्दर निष्काम प्रेम और दया तथा संयम में सेवा का समावेश किया। उन्होंने समभाव से ब्राह्मण क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र को जैन बनाया और बताया कि प्राणी मात्र से प्रेम करना और कपायों का निरोध करना ही ईश्वर पद पाना है। सक्षेप से भगवान् का उपदेश आचार में पूर्ण अहिंसा एवं तत्त्व ज्ञान में अनेकांत वाद, इन दो ही बातों में समझा जा सकता है। श्रमण भगवान् ने साधु साध्वी एवं श्रावक श्राविका संघ की प्ररूपणा की। उनके १४००० साधु और ३६००० साध्वियों का परिवार था, इसके सिवाय लाखों की संख्या में श्रावक श्राविकाएं थीं। गौतम गणधर आदि ब्राह्मण, उदायी एवं मेघकुमार आदि क्षत्रिय, शालिभद्र आदि वैश्य तथा हरिकेशी जैसे शूद्रों ने भी दीक्षा ग्रहण कर उच्च पद को प्राप्त किया था। इस प्रकार आज से २४६६ वर्ष पूर्व राजगृही के पास पावापुरी नामक पवित्र स्थान में कार्तिक कृष्णा अमावस्या की रात्रि को इस शांति पूर्ण तपस्वी का ऐहिक जीवन पूर्ण हुआ अर्थात् उन्होंने निर्वाण पद
SR No.010020
Book TitleJain Ratnasara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSuryamalla Yati
PublisherMotilalji Shishya of Jinratnasuriji
Publication Year1941
Total Pages765
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size32 MB
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